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            राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विशेष-  
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सादर
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अनिल जनविजय
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          राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विशेष-  
 
    
 
    
 
           जगदीश्‍वर चतुर्वेदी: अस्मिता और आत्मकथा की चुनौतियां  
 
           जगदीश्‍वर चतुर्वेदी: अस्मिता और आत्मकथा की चुनौतियां  

17:57, 16 अगस्त 2009 का अवतरण

प्रिय भाई, आपके ये तीनों लेख हमने गद्यकोश (www.gadyakosh.org) में सम्मिलित कर लिए हैं। अब आगे अपने सभी लेख गद्यकोश में ही जोड़ दिया करें। अगर कोई दिक़्क़त या परेशानी हो तो कृपया मुझसे या गद्यकोश टीम से gadyakosh@gmail.com पर सम्पर्क कर सकते हैं। सादर अनिल जनविजय सम्पादक गद्यकोश


          राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विशेष- 
 
         जगदीश्‍वर चतुर्वेदी: अस्मिता और आत्मकथा की चुनौतियां 
                                                         

लेखक के विजन का उसके सामयिक सरोकारों के साथ गहरा संबंध होता है। इन दिनों लेखक के बारे में जितनी भी बातें हो रही हैं वे लेखक के दार्शनिक सैध्दान्तिक नजरिए को दरकिनार करके हो रही हैं। लेखक के बारे में हम हल्के -फुलके ढ़ंग या चलताऊ ढ़ंग से सोचा जा रहा है। साहित्य और जीवन से जुड़े गंभीर सवालों से किनाराकशी चल रही है। आज हम लेखक के विजन की बातें नहीं कर रहे बल्कि हल्की-फुल्की चुटकियों के जरिए बहस कर रहे हैं। किसी भी लेखक को पढ़ने का सबसे सटीक प्रस्थान बिंदु है उसका विजन। विजन पर बातें करने का अर्थ है उसके दार्शनिक प्रकल्प में दाखिल होना। बगैर दार्शनिक प्रकल्प में दाखिल हुए किसी भी कवि की कविता या साहित्य को विश्लेषित करना संभव नहीं है।

सवाल उठता है रचना का लेखक कौन है ? अमूमन रचना व्यक्तिगत प्रयास के रूप में जानी जाती थी आज रचना का लेखक व्यक्ति नहीं है। बल्कि रचना सामूहिक सृजन की देन है। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्धाटन किया है। यह महाभारत की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है आज के युग में लेखन व्यक्तिगत की बजाय सामूहिक अथवा सहयोगी होगा। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है ,काव्य प्रस्तुति नयी है। 'रश्मिरथी' में कर्ण का चित्रण टाइप पात्र के रूप में हुआ है। यह पात्र हमारे मन में रमा हुआ है। टाइप पात्र के बहाने कर्ण हमारे मन की तहों को खोलता है।

टाइप पात्र होने के कारण कर्ण ने 'अस्मिता' के अन्तर्विरोधों को अभिव्यक्त किया है। 'अस्मिता' में प्रतिस्पर्धा,उत्तेजना और त्रासदी भाव प्रमुख रूप से होता है। अस्मिता की धुरी है 'अन्याय'। अस्मिता विमर्श अन्याय के सवालों को केन्द्र में लाता है। अस्मिता अमूमन संवेदनात्मक उत्तेजना से ऊर्जा ग्रहण करती है। भाषा उसका सेतु है। अस्मिता विमर्श में उत्तेजक भाषा प्रमुख उपकरण है। यही वजह है कि 'रश्मिरथी' में वीरत्व व्यंजक भाषिक संरचना का इस्तेमाल किया गया है। अस्मिता की भाषा 'व्यक्तिगत आत्महीनता' को बार-बार व्यक्त करती है। कर्ण की भाषा में इसे सहज ही देखा जा सकता है।

'रश्मिरथी' के कुछ बुनियादी तत्व हैं जो उभरते हैं पहला है अस्मिता हमेशा प्रतिस्पर्धी और बहुरूपी होती है। दूसरा तत्व है भावुकता और सामाजिक तनाव। तीसरा , आत्महीनता। चौथा ,अस्मिता का सामयिक फ्रेमवर्क । पांचवा , अस्मिता की राजनीति। अस्मिता विमर्श का सत्ता विमर्श के साथ संबंध । छठा, अस्मिता विमर्श व्यक्तिवादी विमर्श है।

अस्मिता विमर्श का इन दिनों जो रूप देखने में आ रहा है उसके दो प्रमुख आयाम है पहला है 'अन्याय' और दूसरा है ' इच्छर्ापूत्ति'। सामाजिक-सांस्कृतिक रूपों में इन दो रूपों में अस्मिता का व्यापक उपभोग हो रहा है। अस्मिता विमर्श मूलत: उत्पादक होता है। सामाजिक शिरकत को बढ़ावा देता है। पात्र क्या चाहते हैं यही इसके आख्यान की धुरी है। लेखक ने 'रश्मिरथी' में व्यक्तिगत इच्छाओं को ऐतिहासिक- राजनीतिक संरचनाओं के फ्रेमवर्क में रखकर पेश किया है। पात्र क्या चाहते हैं ? यही प्रधान बिंदु है जिसके इर्दगिर्द सारा कथानक घूमता है।

कर्ण के बहाने लेखक यह रेखांकित करना चाहता है कि किसी भी पात्र की अस्मिता एक नहीं होती बल्कि उसके व्यक्तित्व में एकाधिक अस्मिताएं होती हैं, अस्मिता वस्तुत: मुखौटा है। जिन्हें पात्र या व्यक्ति धारण किए रहता है। दूसरा संदेश है अस्मिता कभी स्वाभाविक नहीं होती। वह सामाजिक निर्मिति है। अस्मिता की धुरी है मनुष्य और मानवता। मुखौटे खोखले होते हैं,मनुष्य सारवान है। कर्ण के जितने भी मुखौटे हैं वे अप्रासंगिक हैं कर्ण की मानवीयता महान् है।

अस्मिता का कोई न मित्र है न शत्रु । अस्मिता की सारी आपत्तियां 'अन्याय' के खिलाफ हैं। 'अन्याय' के खिलाफ जंग में सामाजिक लामबंदी का उपकरण है अस्मिता। सवाल यह है अंत में अस्मिता किस बिंदु पर पहुँचती है ? क्या पुन: लौटकर अस्मिता की ओर लौटते हैं अथवा मानवता की ओर पहुँचते हैं। कर्ण के बहाने लेखक ने अपने कार्यकत्तर्ाा भाव का परिचय दिया है। वह पाठकों को सक्रिय करना चाहता है। इसी अर्थ में 'रश्मिरथी' राजनीतिक कार्रवाई है। लेखक बताना चाहता है अस्मिता मूलत: राजनीतिक मंशा की देन है। अस्मिता पर राजनीति के बिना चर्चा संभव नहीं है। अस्मिता में निहित व्यक्तिगत और सामाजिक इच्छाओं को अभिव्यक्त किया है।

अस्मिता विमर्श का इतिहास से गहरा संबंध है। इतिहास में जाए बिना इसका चित्रण और विवेचन संभव नहीं है। साथ ही अस्मिता हमेशा विकल्प को व्यक्त करती है। 'रश्मिरथी' में भी अस्मिता के विकल्प की तलाश की गयी है। जाति के इतिहास और विकल्प को बड़ी ही सुंदरता के साथ प्रस्तुत किया है। कर्ण की पहचान का आधार है जाति संबंध। इसकी परिणति है कर्ण की अपमानभरी त्रासद जिंदगी। लेखक का मुख्य लक्ष्य है कर्ण,अर्जुन आदि पात्रों की अस्मिता की निरर्थकता को उद्धाटित करना। अस्मिता की पर्तों को खोलते-खोलते कर्ण को सामान्य मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करने में लेखक को सफलता मिली है।

कर्ण सभ्य है। स्त्री और मित्रता का सम्मान करता है। संवेदनशील और उदार है। कर्ण के मानवता, दानवीरता, उदारता, मित्रता, संवेदनशीलता आदि गुणों की आज भी महत्ता है। कर्ण के अनुभव अन्य पात्रों के अनुभवों से भिन्ना हैं। पात्रों में अनुभवों की भिन्नाता स्वाभाविक चीज है। अस्वाभाविक है इस भिन्नाता को छिपाना। जाति,धर्म,वैभव आदि को लेकर कर्ण की भिन्ना राय है। वह परंपरागत सामाजिकता का निषेध करता है। वह अस्मिता संघर्ष के जरिए एक ओर अपनी पहचान बदलता है दूसरी ओर अपनी आर्थिक अवस्था का अतिक्रमण करता है। कर्ण क्रमश:अवैध संतान ,सूतपुत्र,वीर,राजा, कौरव सेनापति बना। कर्ण स्वनिर्मित ,आत्मनिर्भर या सेल्फमेड है।

कर्ण मर्द है। वीरता पर गर्वित है। पुरूषार्थ उसकी संपदा है। पुरूषार्थ के बल पर भाग्य पर विजय हासिल करता है। पुरूष पात्र पुरूषार्थ जरिए भाग्य को पछाड़ते हैं। इसके विपरीत दिनकर ने कुंती के बहाने औरत की नियति का चित्रण किया है। स्त्री का अपने भवितव्य पर नियंत्रण नहीं होता फलत: वह अपनी कहानी सेंसर करती है। वीरता के कारण कर्ण भाषा ,संस्कृति और जाति की सीमाओं का अतिक्रमण करता है। कर्ण के पक्षधर और विरोधी दोनों में उसकी वीरता निर्विवाद है। वह कौरवों को एकजुट रखने में सफल रहता है। वीरता के कारण कर्ण को महाभारत के अद्वितीय चरित्रों की कोटि में रखा जाता है। दुर्योधन का पांडवों के साथ युध्द का फैसला बहुत कुछ कण्र् ा के ऊपर ही निर्भर था। महाभारत को अर्थपूर्ण बनाने में कर्ण की निर्णायक भूमिका है। कर्ण की सृष्टि के बिना महाभारत लिखा ही नहीं जाता। महाभारत में वीरों के वैभव का जो विराट रूप सामने आता है उसकी धुरी है कर्ण। कर्ण महाभारत के कथानक को बांधने वाला महत्वपूर्ण ,निर्णायक और विवादास्पद पात्र है। महाभारत में दो पात्र हैं जो अस्मिता विमर्श के स्रोत हैं पहला ,द्रौपदी और दूसरा कर्ण। दोनों ही पितृसत्ता के लिए चुनौती हैं।

कर्ण पितृसत्ता को चुनौती देता है। पितृसत्ता के सांस्थानिक रूप जाति व्यवस्था की अमानवीयता को उद्धाटित करता है। दलित,राजा,मर्द,वीर आदि सब रूपों का अतिक्रमण करते हुए 'मित्रता' 'आत्मनिर्भरता' और 'प्रेम' के प्रतीक रूप में सामने आता है। किसी को कर्ण का जाति विमर्श अपील करता है,किसी को वीरता, उदारता,मित्रता और वचनबध्दता अपील करती है। कर्ण उन वर्गों और सामाजिक समूहों को प्रभावित करते हैं जो अपना रूपान्तरण करना चाहते हैं। जो प्रतिवादी भावना के साथ सामाजिक विकास करना चाहते हैं। कर्ण की सबसे ज्यादा अपील वंचितों और दलितों में है। सबसे ज्यादा अपील उनमें है जो वर्ग अपनी पहचान अथवा अस्मिता की तलाश में हैं। अस्मिता के प्रचलित मानकों का कर्ण अनुकरण नहीं करता। अस्मिता मानकों में निहित खोखलेपन को सामने लाता है।

जाति,लिंग,नस्ल,त्वचा,धर्म आदि पर आधारित अस्मिता की सीमित भूमिका होती है। अस्मिता का मूलाधार है मानवता। मनुष्य ही प्रधान अस्मिता है। बाकी इसके मुखौटे हैं। कर्ण का संघर्ष मुखौटों के खिलाफ है। वह मुखौटे उतार फेंकता है। अस्मिता के मुखौटों में कर्ण का दम घुटता है। अस्मिता के मुखौटों को नष्ट करने के साथ कर्ण का उदारमना मानवीय मन सामने आता है। कर्ण की खूबी है दूसरों के प्रति त्याग भावना। 'रश्मिरथी' में जिस युध्द का वर्णन है यह मूलत: अस्मिता युध्द है। यह अस्मिता संघर्ष में निहित आत्मघाती भावबोध की भी अभिव्यक्ति है। अस्मिता आमतौर पर स्वयं को नष्ट करती है। वह 'स्व' को नष्ट करती है।

'रश्मिरथी' कर्ण की आत्मकथा है। आत्मकथा में आत्म-स्वीकृति,आत्म-उद्धाटन और शिरकत का तत्व रहता है। आत्मकथा में वे चीजें बतायी जाती हैं जिन्हें लोग नहीं जानते। जो जानते हैं उसे आत्मकथा में नहीं चाहते। आत्मकथा के छह मूल तत्व हैं। इन तत्वों के आधार पर 'रश्मिरथी' का समग्र ताना-बाना टिका है।

आत्मकथा का पहला तत्व है व्यक्तिगत अस्मिता और निर्वैयक्तिकता। कर्ण की कहानी व्यक्तिगत है, प्रस्तुति निर्वैयक्तिक है। कर्ण की निर्वैयक्तिक छवि निर्मित करने में भाषा प्रमुख कारक है। भाषा के जरिए कर्ण के प्रति ज्ञान में इजाफा होता है। रश्मिरथी' में कविता और कहानी दोनों के मिश्रित प्रयोग मिलते हैं। कर्ण की कथा और कविता मिलकर अस्मिता का बोध निर्मित करती है। अस्मिता एक नहीं अनेकरूपा है। सर्जनात्मक संभावनाओं से भरी है। कर्ण की आत्मनिष्ठ छवि के सामाजिक आयाम पर जोर देने में लेखक को सफलता मिली है। दूसरी महत्वपूर्ण यह है कि अस्मिता का शरीर के साथ गहरा संबंध है। कर्ण के कवच-कुंडल और कर्ण के शरीर का अंत ,'रश्मिरथी' को उत्तर आधुनिक अस्मिता विमर्श में ले जाता है। टेरी इगिलटन के अनुसार 'उत्तर आधुनिक व्यक्ति की अस्मिता के साथ उसका शरीर अन्तर्ग्रथित है।'

आत्मकथा का दूसरा तत्व है उपस्थिति,वर्तमान और प्रस्तुति। रोलां बार्थ के शब्दों में आत्मकथा को उपन्यास के चरित्रों के माध्यम से व्यक्त होना चाहिए। 'रश्मिरथी' में कर्ण की आत्मकथा विभिन्ना चरित्रों के माध्यम से सामने आती है। आत्मकथा लिखते समय चिर-परिचित क्षेत्र हमेशा परेशान करते हैं। चिर-परिचित वातावरण समस्या पैदा करता है। चिर-परिचित यथार्थ है भारत की जाति समस्या। जाति समस्या लेखक को परेशान और उत्तेजित दोनों ही करती है। जातिप्रथा को करीब से जानने के कारण लेखक को इसके बारे में सटीक वर्णन ,विवरण और ब्यौरे तैयार करने में मदद मिली है। लेखक को जातिप्रथा की अनेक 'दरारें' नजर आती हैं। आत्मकथा में 'दरारों' की केन्द्रीय भूमिका होती है। 'दरारें' पुराने व्यक्तित्व की जगह नए व्यक्तित्व को सामने लाने का काम करती हैं। कर्ण की जाति पीड़ा जितनी बार व्यक्त हुई है उतनी ही बार कर्ण का नया रूप सामने आया है। पुराना कर्ण बदला है। लेखक कहीं पर भी कण्र् ा के पुराने रूप को स्थापित करने का प्रयास नहीं करता। हमेशा नए रूप को सामने लाता है। कर्ण पुराने रूप के साथ सामंजस्य बिठाने की बजाय 'दरारों' और 'अंतरालों' के बीच में से नए रूप में सामने आता है। रोलां बार्थ ने आत्मकथा के बारे में लिखा है आत्मकथा में आप स्वयं को नहीं देखते बल्कि इमेज को देखते हैं। अपनी आंखों को नहीं देखते। आत्मकथा लेखन हमेशा विचलनभरा होता है। विचलन के ऊबड़ खाबड़ पैरामीटर सर्किल बनाते हैं। इन रास्तों से गुजरने के बाद एक ही संदेश संप्रेषित होता है कि जिंदगी अर्थपूर्ण है। आत्मकथा का केन्द्र बिंदु कौन सा है ? यह खोजने की जरूरत है।

आत्मकथा में विश्वास सबसे बड़ी चीज है। आस्था के साथ लिखी आत्मकथा इमेज बनाती है। आत्मकथा में चित्रण के लिए चित्रण नहीं होता बल्कि प्रस्तुति पर जोर रहता है। आत्मकथा चिर-परिचित यथार्थ की प्रस्तुति होती है। प्रस्तुति में अंतराल ज्यादा साफ नजर आते हैं। क्योंकि आत्मकथा में समग्रता के तत्व का पालन नहीं होता।

आत्मकथा में न्यूनतम अनुकरण, उद्धाटन ,विवरण और आख्यान होता है। आत्मकथा में नामों का जिक्र और नामों के साथ जुड़े अनुभवों का वर्णन होता है। फलत: आत्मकथा के दायरे में अनेक मील के पत्थर और पैरामीटर होते है। आत्मकथा के रूप में यदि 'रश्मिरथी' को देखा जाए तो पाएंगे कि वहां भाषा ही आत्मकथा है। भाषा का संसार ही है जिसके कारण यह कृति अपील करती है। भाषा के माध्यम से ही कर्ण की विभिन्ना पर्तों को लेखक ने खोला है।

आत्मकथा में भाषा बहुत बड़ा आधार है। आत्मकथा की भाषा में प्रस्तुति 'मैं' के अंत की घोषणा है। मैं संकेत मात्र होकर रह जाता है। भाषा सामूहिक प्रयासों से बनती है। आत्मकथा के 'मैं' का राजनीतिक - दार्शनिक चीजों में लोप हो जाता है। भाषाविज्ञान में लोप हो जाता है। आत्मकथा में मैं हमेशा घुला मिला होता है। आत्मकथा में जैसे 'तुम','वह','हम' होते हैं वैसे ही 'मैं' भी होता है। आत्मकथा में सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट दोनों एक हो जाते हैं। वक्ता और विषय एक हो जाते हैं।

आत्मकथा का तीसरा प्रमुख तत्व है सुसंगत अनुभूति। दिनकर ने कर्ण के चरित्र को सामने लाकर पात्र के जीवन के तथ्यों को सीधे बगैर किसी लाग-लपेट के पेश किया है। आत्मकथा में तथ्यों को बगैर चासनी के पेश किया है। बगैर किसी कृत्रिमता के पेश किया है। तथ्यों को अकृत्रिम भाव से पेश करना आत्मकथा का उत्तर आधुनिक फिनोमिना है। उत्तर आधुनिक आत्मकथा में अनिश्चितता,विचलन आदि को सहज ही देख सकते हैं। इसमें भाषा और विमर्श प्रभावशाली होते हैं।

साहित्य में सत्य नहीं 'फिक्शन' होता है। साहित्य सत्य नहीं गल्प है। सत्य का आख्यान कभी गल्प के बिना नहीं बनता। 'रश्मिरथी' गल्प है। आत्मकथा में जीवन सुंदर और साफसुथरा दिखता है वास्तव में वैसा नहीं होता। बल्कि बेहद जटिल और उलझनों से भरा होता है। आत्मकथा में जीवन का जो पैटर्न और संतुलन नजर आता है वह जीवन में नहीं होता। आत्मकथा हमेशा उन अनुभवों का प्रतिवाद करती है जो हमारे इर्द-गिर्द होते हैं। अनुभवों के जरिए जीवन के सवाल उठाए जाते हैं। उन चीजों को शक्ल प्रदान की जाती है जिनकी कोई पहचान नहीं है। जो शक्लविहीन हैं। संवेदनात्मक तौर पर जिन्हें हम महसूस नहीं करते उन चीजों को अभिव्यक्त करने की कोशिश की जाती है।

उपन्यास,कविता ,कहानी आदि सर्जनात्मक विधारूप में जब आत्मकथा लिखी जाती है तो उसमें कल्पनाशीलता की बड़ी भूमिका होती है। कहानी,आत्मकथा,काव्य,सैध्दान्तिकी,वादविवाद आदि सबको 'इच्छा' में शरण लेनी होती है। अनुभव,संवेदना और शिक्षा को रूपान्तरित करने के लिए कल्पना का सहारा लिया जाता है। कल्पना में तयशुदा सीमाओं का अतिक्रमण होता है। आत्मकथा में संस्मरण के दाखिल होते ही कहानी तेजी से बदलती है। कर्ण के साथ कुंती और कृष्ण की मुलाकात कहानी को बुनियादी तौर पर बदल देती है। राजसभा में जब कर्ण के पिता और जाति का नाम पूछा जाता है तो कहानी में बदलाव आता है। कहानी शैली भी बदल जाती है। संस्मरणों के जरिए कहानी में आए बदलाव इस बात का संकेत हैं लेखक सांस्कृतिक बाधाओं अथवा सांस्कृतिक टेबुओं का अतिक्रमण करना चाहता है।

कहानी की सीधे और प्रामाणिक प्रस्तुति का अर्थ है संबंधित व्यक्ति ने अपनी निजी अनुभूति को विकसित कर लिया है। निजी अनुभूति के आधार पर सांस्कृतिक संदेहों का अतिक्रमण करता है। दिनकर ने 'रश्मिरथी' में जातिप्रथा संबंधी निजी अनुभूतियों के आधार पर कर्ण के जीवन में व्याप्त 'अन्याय' को उद्धाटित किया है। इसके ही आधार पर विमर्श की संरचनाओं और कर्ण की अस्मिता का निर्माण किया है। कहने का तात्पर्य यह कि अनुभूति,विमर्श संरचनाएं और अस्मिता के अन्तस्संबंध के आधार पर ही हमारी समझ,व्याख्या,प्रतिक्रिया,विचार आदि बनते हैं। समाज प्रदत्त विमर्श शैली और फ्रेम द्वारा अस्मिता निर्मित होती है और यह उसकी सीमा भी है।

दूसरी ओर लेखक कुछ चीजों को विमर्श में शामिल नहीं करता। उन पर पाबंदी लगाता है। आत्मकथा में सुचिंतित और सुनियोजित भाव से विमर्शों को चुनौती दी जाती है। फलत: आत्मकथा जोखिमभरा लेखन है। आत्मकथा में लेखक जो जोखिम उठाता है उसमें वह आंतरिक सांस्कृतिक कोड का उद्धाटन करता है। ये सांस्कृतिक कोड जीवनानुभवों को देखने में मदद करते हैं। 'रश्मिरथी' की विषयवस्तु महाकाव्य की कहानी है। उसे काव्य 'पाठ' के रूप में रूपान्तरित करके नए किस्म के विधा विमर्श को प्रस्तुत किया है।

दिनकर ने 'रश्मिरथी' में कर्ण की कहानी को व्यापक जाति विमर्श के कैनवास पर रखा है। सामाजिक भेद के व्यापक फलक पर कर्ण के चरित्र का विकास करने के कारण ही हमें पता चलता है कि जाति को लोग कैसे देख रहे हैं और किस तरह देखना चाहिए। साथ ही यह भी सीखने की जरूरत है कि आत्मकथा में निजी अनुभूतियों को कैसे व्यक्त करें। दिनकर ने बताया है कि कर्ण कैसा था, कर्ण की मूल समस्या क्या है, कर्ण से जुड़ा मूल विमर्श या विवाद क्या है, उसे किस तरह देखें। कर्ण के कथानक के सबक क्या हैं और इस समूचे कथानक का हमारे सांस्कृतिक मानकों और सामाजिक कोड्स से क्या संबंध है और इनको कैसे बदलें ?

'रश्मिरथी' के प्रसंग में कहानी और अनुभव के अन्तस्संबंध के बारे में भी सवाल उठता है। कहानी में चीजें तय होती हैं। शक्ल,रूपरेखा और सीमा तय है। जबकि अनुभव अचानक व्यक्त होता है और दिख रही चीजों और तदनुरूप अनुभवों में घुलमिल जाता है। कहानी को हमेशा सरल ,विस्तृत विवरणों और भावनाओं के ज्वार से मुक्त होना चाहिए। कहानी में पैटर्न,प्लाट और अर्थ होता है। फलत: हम कहानी में प्रासंगिक अर्थ खोजते हैं। प्रासंगिक अर्थ के बिना कहानी लिखना संभव नहीं है। प्रत्येक कहानी में रूपान्तरण होता है। प्रत्येक कहानी परिवर्तन और विनिमय करती है। चयन और चुनाव करती है। आत्मकथा में अतीत का सृजन नहीं होता बल्कि आत्म या स्वानुभूतियों का सृजन होता है। अतीत के अनुभवों को नए तरीके से व्यक्त किया जाता है।

आत्मकथा का चौथा तत्व है संप्रेषण और सामूहिकता। लेखक का स्व किसी शून्य में निवास नहीं करता। आत्मकथा लिखते समय अन्य को तबाह करना, अन्य के नजरिए को तबाह करना लक्ष्य नहीं होता। जैसाकि इन दिनों अनेक लेखिकाओं की आत्मकथा में देखने को मिलता है। आत्मकथा का लक्ष्य अन्य को तबाह करके अपना स्थान बनाना नहीं है। विद्वतापूर्ण लेखन में अन्य के प्रति ज्यादा मानवीयता और सम्मान का भाव होता है। मैंने अनेक लेखकों की रचनाएं पढ़ी हैं उनसे असहमत भी रहा हूँ। किंतु उनसे एक बात जरूर सीखी है कि हमें दूसरों की बात सम्मान के साथ सुननी चाहिए। लेखन सिर्फ संप्रेषण नहीं है बल्कि सामूहिकता का एक रूप भी है। यही वह जगह है जहां आप अन्य लेखकों को अपने पास पाते हैं। किसी भी लेखक के लेखन को खारिज करने के भाव से नहीं पढ़ा जाना चाहिए बल्कि स्वीकारने और गहरी जिज्ञासा के साथ पढ़ा जाना चाहिए। जिससे संवाद किया जा सके। लेखन कभी भी स्वयं के लिए नहीं होता अन्य के लिए होता है। दूसरों के लिए होता है। इसी अर्थ में लेखन सामूहिकता बोध पैदा करता है। सामूहिकता को अभिव्यक्त करता है। लेखन कहने के लिए 'स्व' से आरंभ होता है किंतु 'स्व' के लिए नहीं होता। सबके लिए होता है।

आत्मकथा को 'आत्म' या 'निज' को हीन या महान बनाने या सहानुभूति जुटाने के औजार के तौर पर नहीं लिखा जाता। आत्मकथा आत्माभिव्यंजना की खोज है। यह उनके साथ संवाद है जो अन्य की बात सुनने के लिए सहमत हैं । प्रतिक्रिया व्यक्त करने को तैयार हैं। अपनी आत्मकथा खोज रहे हैं।

आत्म को व्यक्त करते समय व्यक्ति 'स्व' में कैद नहीं रहता। बल्कि अपने अलगाव और अज्ञान को दूर करने में आत्म की मदद लेता है। आत्मकथा का मकसद आत्म सत्य को बताना नहीं है। उसका मकसद है आत्मसत्य का खंडन करना। आत्म की बंद गलियों के बाहर आना और उन तमाम चीजों का खंडन करना जिनसे आत्म भिन्ना नजर आता है।

प्रत्येक कहानी में जाति गुण होते हैं। इनके बिना कहानी लिखी नहीं जाती। अथवा शुध्द कहानी जैसी कोई चीज नहीं होती। कहानी हमेशा अर्थ से संचालित होती है। अर्थ के बिना कहानी नहीं होती। अर्थहीन कहानी महज घटनाक्रम है। कहानी में चार चीजें प्रमुख हैं: पहला है ,कहानीपन। दूसरा, कैसे व्यक्त करते हैं। तीसरा ,क्या शिक्षा देते हैं। चौथा कैसे आनंद प्राप्त करते हैं। ये चीजें अलग भी हो सकती हैं और किसी कहानी में एक साथ भी हो सकती हैं। कहानी में ऐसे बिंदु भी आते हैं जहां तथ्य और अनुभूति का मिलन होता है। आत्मकथा निश्चित रूप से व्यक्ति का आख्यान है,यह पेशेवर आत्मस्वीकृति है। यह मनुष्य की आत्मस्वीकृति है जो कि हमेशा संप्रेषण और सामूहिकता की प्रक्रियाओं में रहता है।

आत्मकथा का पांचवां तत्व है छवि,काल्पनिक छवि और कल्पना। वाल्टर वूगीमैन के अनुसार वैध ज्ञान की पध्दति कल्पना का अंत है। कहानी में शब्द,भाषा और भाषण चेतना निर्मित करते हैं। यथार्थ परिभाषित करते हैं। कल्पना के जरिए रूढिबध्दता से अपने को मुक्त करते हैं। अन्य किस्म का व्यक्तित्व निर्मित करते हैं। कल्पना के जरिए ही सामाजिक-साहित्यिक रूढियों को खारिज करने में मदद मिलती है। मनुष्य का रूपान्तरण होता है। यह रूपान्तरण सामंजस्य बिठाकर नहीं होता। कर्ण क्या है और कर्ण की क्या छवि बन रही है इसकी प्रस्तुति के दौरान दिनकर ने कर्ण को कहीं से भी रूढिबध्द रूप में चित्रित नहीं किया है। कर्ण को चित्रित करते हुए पूर्ण स्वतंत्रता और कल्पना का इस्तेमाल किया है। स्वतंत्रता और कल्पना के प्रयोग के कारण ही आत्मकथा ऊर्जा से भरी होती है। पढ़ने वालों के मन में ऊर्जा का संचार करती है। साहस और आस्था के साथ जोखिम उठाने की प्रेरणा देती है।

आत्मकथा का छठा तत्व है विमर्श,उद्धाटन और समापन। आत्मकथा में आत्म को उद्धाटित करने के लिए साहस की जरूरत होती है। अनेक लेखकों में साहस का अभाव होता है। आत्मविश्वास और साहस के बिना आत्मकथा लिखना संभव नहीं है। जो लेखन में जोखिम उठाते हैं और अपनी बात कहते हैं। वे अपना बोझ हलका करते हैं साथ ही समाज को भी खुली हवा में सांस लेने का मौका देते हैं। आत्म के बहाने लेखक लंबे समय से बंद कमरों को खोलता है। आत्मकथा में उद्धाटित करते समय लेखक डरता है, डरता है कि कहीं पकड़ा न जाऊँ ? अन्य के सामने नंगे खड़े होने का डर रहता है। यह शर्म और डर कहां से आता है ? असल में जो बौनेपन के शिकार होते हैं वे शर्माते हैं, डरते हैं। औसत बुध्दि के लेखक शर्माते और डरते हैं। इनमें से ज्यादातर रूढियों में जीते और तयशुदा मार्ग पर चलते हैं। 'क्लीचे' में जीते और बातें करते हैं।

मजेदार बात यह है आत्मकथा में आत्म को बताना तो बहुत दूर की बात है लोग कहां जा रहे हैं यह तक साफतौर पर नहीं बताते। वे सामान्य सी चीज को बताने में डरते हैं, शरमाते हैं। उन्हें डर लगता है यदि अपनी बात बता देंगे तो पता नहीं क्या हो जाएगा। अमूमन हमें न बताने की आदत है। छिपाने की आदत है। छिपाना हमारी प्रकृत्ति है। जो छिपाया जा रहा है वह जितना महत्वपूर्ण है उतना ही वह भी महत्वपूर्ण है जो बताया जा रहा है। आत्मकथा को लिखने का मकसद होता है बंद अनुभूतियों को खोलना। छिपे हुए को सामने लाना। आत्मकथा के वातावरण को विभिन्ना परिप्रेक्ष्य में देखना । निष्कर्ष निकालने से बचना । निष्कर्ष आत्मकथा को बंदगली में ले जाते हैं।

आत्मकथा का मार्ग खुला होता है उसे निष्कर्ष के बहाने बंद करना आत्मकथा विधा के मानकों की अवहेलना है। लेखन को इस बात से आंकना चाहिए कि आप कितना भूलते हैं और कितना क्षमा करते हैं। लेखन में अनुभवों की संभावनाओं का कभी अंत नहीं होता। कहानी में कुछ चुनते हैं और कुछ छिपाते हैं। क्या बताएं और क्या छिपाएं ? इसका फैसला कैसे करें ? किसी भी चीज को बताने के लिए कहानी का होना बेहद जरूरी है कहानी के बिना कुछ भी कहना संभव नहीं है। यही वजह है दिनकर भी जब कर्ण पर लिखने गए तो उन्हें कहानी में कहने की कोशिश की है। दिनकर ने लिखा है कथाकाव्य का आनंन्द खेतों में देशी पध्दति से जई उपजाने के आनन्द के समान है ; यानी इस पध्दति से जई के दाने तो मिलते ही हैं, कुछ घास और भूसा भी हाथ आता है ,कुछ लहलहाती हुई हरियाली देखने का भी सुख प्राप्त होता है और हल चलाने में जो मेहनत करनी पड़ती है ,उससे कुछ तन्दुरूस्ती भी बनती है।

मृत्‍यु से मुठभेड़ का कवि‍ टैगौर

रवीन्‍द्रनाथ टैगोर के मृत्‍यु दि‍वस पर


रवीन्‍द्रनाथ के मृत्‍यु दि‍वस पर उनके वि‍चारों और नजरि‍ए पर वि‍चार करने का मन अचानक हुआ और पाया कि‍ रवीन्‍द्रनाथ के यहां मृत्‍यु का जि‍तना जि‍क्र है उससे ज्‍यादा जीवन का जि‍क्र है। रवीन्‍द्रनाथ ने अपने लेखन से वि‍श्‍व मानव सभ्‍यता को आलोकि‍त कि‍या है, चारों ओर उनका यश इतने दि‍नों के बाद आज भी बना हुआ है, आज भी बांग्‍ला का कोई भी वि‍मर्श उनके बि‍ना अधूरा है। रवीन्‍द्र की इस वि‍राटता में उनके दृष्‍टि‍कोण की महत्‍वपूर्ण भूमि‍का थी।

रवीन्‍द्रनाथ आधुनि‍काल के उन चंद वि‍चारकों और लेखकों में हैं जो मृत्‍यु की सत्‍ता को स्‍वीकारते हैं, उसका व्‍यापक चि‍त्रण भी करते हैं। मृत्‍यु को गीत बनाने में रवीन्‍द्रनाथ ने वि‍लक्षण महारत हासि‍ल की थी। सामान्‍य तौर पर भारतीय मनोवि‍ज्ञान मौत से आंखें चुराता है अथवा उसका बहुत कम वि‍मर्श मि‍लता है। रवीन्‍द्रनाथ ने मौत को स्‍वीकारा और उसे चुनौती भी दी। रवीन्‍द्रनाथ का प्रसि‍द्ध कथन था ,जो उन्‍हें अपनी परंपरा से मि‍ला था, उन्‍होंने लि‍खा ' गृहीत इव केशेषु म़ृत्‍युना धर्म माचरेत्'- अर्थात् मौत ने चोटी पकड़ रखा है यह ध्‍यान में रखते हुए धर्म पर चलो। इसी धारणा के आधार पर उन्‍होंने 'संसार नश्‍वर है', इस‍ प्राचीन धारणा का खंड़न कि‍या था और लि‍खा था ' अवसान के बाद जो मि‍थ्‍या है वह अवसान के पहले वास्‍तव है। जि‍स मात्रा में जो चीज सत्‍य है उस मात्रा में उसे मानना होगा। हम न मानें तो वह चीज ज़बरदस्‍ती अपने-आपको मनवा लेगी और एकदि‍न ब्‍याज सहि‍त हमसे बदला लेगी।'

जो है उसे मानो और आगे बढ़ो। यदि‍ प्रस्‍तुत यथार्थ को अस्‍वीकार करते हैं तो यथार्थ मनवाकर छोड़ेगा। आमतौर पर हम सबमें यथार्थ को झुठलाने की आदत होती है अथवा यथार्थ से आंखें चुराते हैं। उन्‍होंने लि‍खा वस्‍तु को अपनाना और वस्‍तु को छोड़ देना ,दोनों में ही सत्‍य है। ये दोनों सत्‍य एक-दूसरे पर नि‍र्भर हैं, और दोनों को यथार्थ रूप से मि‍लाकर ही पूर्णता लाभ संभव है।

हि‍न्‍दी में सामंजस्‍य पर खूब बहस हुई है। इस प्रसंग में रवीन्‍द्रनाथ लि‍खा है यदि‍ इस सामंजस्‍य का आश्रय लेना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें देखना होगा मनुष्‍य का सच्‍चा रूप। कि‍सी वि‍शेष प्रयोजन के पक्ष से मनुष्‍य को देखने से काम नहीं चलेगा। मनुष्‍य को कि‍सी एक ही प्रयोजन के नजरि‍ए से देखने से वह समझ में नहीं आ सकता। बल्‍कि‍ यह बेकार का नजरि‍या है। रवीन्‍द्रनाथ का मानना था यदि‍ हम आम के फल को इस दृष्‍टि‍कोण से देखें कि‍ उससे खटाई कि‍स तरह मि‍ल सकती है तो आम का समग्र रूप हमारे सामने नहीं आता- बल्‍कि‍ हम उसे कच्‍चा ही तोड़कर उसकी गुठली नष्‍ट कर देते हैं। पेड़ को यदि‍ हम केवल ईंधन के रूप में देखें तो उसके फल- फूल-पत्‍तों में हमें कोई तात्‍पर्य नहीं दीख पड़ेगा। इसी तरह यदि‍ मनुष्‍य को हम राज्‍य रक्षा का साधन समझेंगे तो उसे सैनि‍क बना देंगे। यदि‍ व्‍यक्‍ति‍ को जातीय समृद्धि‍ का उपाय-मात्र समझें तो उसे वणि‍क बनाने का प्रयास करेंगे। अपने संस्‍कारों के अनुसार जि‍स गुण को हम सबसे अधि‍क मूल्‍य प्रदान करते हैंउसी के उपकरण के रूप में मनुष्‍य को देखकर उस गुण से सम्‍बन्‍धि‍त प्रयोजन-साधना को ही हम मानव-जीवन की सार्थकता समझने लगते हैं। यह दृष्‍टि‍कोण बि‍लकुल ही बेकार हो,ऐसी बात नहीं। लेकि‍न अंत में इससे सामंजस्‍य नष्‍ट होकर अहि‍त ही हमारे पल्‍ले पड़ता है। जि‍से हम तारा समझकर आकाश में उड़ाते हैं वह कुछ ही देर तक तारे की तरह चमकने के बाद जलकर खाक हो जाता है और जमीन पर आ गि‍रता है।

मनुष्‍य का अर्थ प्रयोजनों से बड़ा है। हम व्‍यर्थ में प्रयोजनों के साथ मनुष्‍य के अर्थ को जोड़ देते हैं। मनुष्‍य के सत्‍य को इनके परे जाकर देखना होगा। रवीन्‍द्रनाथ टैगोर के जमाने में पूंजीवाद अपने यौवन पर था उन्‍होंने पूंजीवाद की बर्बरता और उपभोक्‍ता संस्‍कृति‍ के मानव वि‍रोधी चरि‍त्र को बड़ी बारीकी के साथ पकड़ा था। टैगोर का मानना था आज हम बाजार की भीड़ और शोर-गुल में सम्‍मि‍लि‍त हो रहे हैं,नीचे उतर आए हैं,ओछे हो गए हैं। कलह से हमारा सन्‍तुलन जाता रहा है। पदवि‍यों-उपाधि‍यों को लेकर आपस में झगड़ा कर रहे हैं। बड़े-बड़े अक्षरों के और ऊंचे स्‍वर के विज्ञापनों से अपने को औरों से बड़ा घोषित करने में हमें संकोच नहीं होता। और मजे की बात तो यह है कि जो कुछ हम कर रहे हैं सब 'नकल' है। इसमें सत्‍य की मात्रा नहीं के बराबर है। इसमें शान्ति नहीं,संयम नहीं,गाम्‍भीर्य नहीं, शालीनता नहीं।

रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने सादगी और मानवता पर जोर दिया और ऊपरी आडम्‍बर की जबर्दस्‍त मुखालफत की थी। भद्रता को वे आंतरि‍क चीज मानते थे, भद्रता कोई बाजार में मि‍लने वाली वस्‍तु नहीं थी जि‍से जाकर खरीद लो और पहनकर भद्र बन जाओ। टैगोर के शब्‍दों में आज हमारी भद्रता सस्‍ते कपड़ों से अपमानि‍त होती है,घर में वि‍लायती ढंग की सजावट न हो तो उस पर आंच आती है बैंक में हमारे नाम पर जो अंक लि‍खे हैं वे कम हों, तो हमारी भद्रता कलंकि‍त होती है। हम यह भूल बैठे हैं कि‍ ऐसी प्रति‍ष्‍ठा को सि‍र पर ढोकर उसका आदर करना वास्‍तव में लज्‍जा का वि‍षय है। जि‍न बेकार की उत्‍तेजनाओं को हमने सुख मानकर चुना है उनसे हमारे समाज का अन्‍त:करण दासता के पाश में जकड़ा जा रहा है।

मानवतावाद,अस्‍मि‍ता,स्‍मृति‍ की राजनीति‍ और हजारी प्रसाद द्वि‍वेदी की आलोचना पद्धति‍

व्यक्ति -मनुष्य पूरे समाज की एक इकाई है।उसका कोई भी कार्य ऐसा नहीं होना चाहिए जो सामाजिक मंगल के विरूध्द पड़े। (मध्यकालीनबोध का स्वरूप)

कहते हैं वाल्टर बेन्यामिन एक पुस्तक सिर्फ उध्दरणों की ही लिखना चाहते थे।काश ,मैं ऐसा कर पाया होता। (नामवर सिंह,दूसरी परंपरा की खोज, की भूमिका )

आधुनिक हिन्दी आलोचना इन दिनों ठहराव के दौर से गुजर रही है,आलोचना में यह गतिरोध क्यों आया ? आलोचना में जब गतिरोध आता है तो उसे कैसे तोड़ा जाए ? क्या गतिरोध से मुक्ति के काम में परंपरा हमारी मदद कर सकती है ? क्या परंपरागत आलोचना के दायरे को तोड़ने की जरूरत है ? ये कुछ सवाल हैं जिन पर नए नजरिए से विचार करने की जरूरत है। संभवत: हजारीप्रसाद द्विवेदी का लेखन इस संदर्भ में हमारी बहुत ज्यादा मदद कर सकता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इतिहास,आलोचना,निबंध और उपन्यास इन चार क्षेत्रों में जो कार्य किया है वह हमारे लिए ठहराव के दौर में रोशनी का काम कर सकता है।

आलोचना के नए मानक की तलाश में - हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में आलोचना की दो पध्दति प्रचलन में हैं,इनमें पहली है रामविलास शर्मा की,दूसरी है नामवर सिंह की।दोनों के अंधभक्तों की कमी नहीं है। आलोचना में इसी अंधभक्ति के कारण सबसे ज्यादा समस्याएं पैदा हुई हैं।आलोचना में ठहराव अंधभक्ति और अनुकरण के कारण पैदा होता है। दूसरी ओर आलोचना पध्दति में श्रध्दा के तत्व का कोई स्थान नहंीं है। आलोचना के लिए श्रध्दा की बजाय आलोचनात्मक विवेक की जरूरत होती है।दूसरी ओर किसी भी आलोचक की आलोचना एकांगी ढ़ंग से,वकील की शैली में नहीं की जानी चाहिए। आलोचना का अर्थ वकील की दलीलें नहीं है।आलोचक को वकील नहीं होना चाहिए।इसके अलावा आलोचना मे ठहराव आत्मगतबोध के कारण्ा भी आता है,आलोचना को इच्छित दिशा में मोड़ना,आत्मगतता के तत्व का हावी हो जाना,आलोचना के यथार्थ से कट जाने का संकेत है।आलोचना मूलत: संवाद है,सापेक्ष संवाद है,समस्याकेन्द्रित संवाद है,पध्दतिगत संवाद है,आलोचना विनिमय है। आलोचना देती है तो लेती भी है। जो आलोचक या आलोचना इस दोहरी प्रक्रिया से नहीं गुजरती वह ठहराव की शिकार हो जाती है।

वर्तमान युग जनतंत्र का युग है,इस युग का नायक है मनुष्य।मनुष्य और मानवतावाद इस दौर के विचारधारात्मक संघर्ष की धुरी हैं। किसी भी विचारधारा अथवा व्यवस्था की कसौटी है मानवाधिकार। आलोचना में मानवतावाद की सबसे सुसंगत व्याख्या आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के यहां मिलती है। उनकी आलोचना में मनुष्य और मानवतावाद एक सुनिश्चित योजना के तहत दाखिल होते हैं,इस मानवतावाद और मनुष्य का स्वाधीनता संग्राम की जनतांत्रिकचेतना ,मुक्तिकामीचेतना से गहरा संबंध है। यह ऐसा मानवतावाद है जो शीतयुध्द की छायाओं से मुक्त है। इस मानवतावाद के केन्द्र में मनुष्य की मुक्ति का लक्ष्य है।हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना पर रामविलास शर्मा के द्वारा जो आलोचना लिखी गयी है उसमें उनके अवदान पर एकांगी नजरिए से विचार किया गया है, रामविलास शर्मा ने यह सिध्द किया है कि द्विवेदी जी ने मौलिक कुछ नहीं लिखा है,मौलिक जो कुछ लिखा है वह अन्य के द्वारा लिखा गया है अथवा रामचन्द्र शुक्ल या स्वयं उनके द्वारा लिखा गया है।इस पैमाने से द्विवेदीजी का सही मूल्यांकन संभव नहीं है।

आलोचना जब एकांगी हो जाती तो आलोचना में गतिरोध पैदा होता है,गतिरोध को तोड़ने अथवा आलोचनात्मक विकास की बुनियादी शर्त है आलोचना के सकारात्मक तत्वों की मींमासा पर जोर। मौजूदा आलोचनात्मक गतिरोध का एक अन्य कारण है अकादमिक स्तर पर आलोचना की सैध्दान्तिकी और पध्दति के पठन-पाठन,अनुसंधान की संरचनाओं और परंपरा का अभाव। इसी के गर्भ से यह भाव भी पैदा हुआ है कि कम लिखो और ज्यादा कमाओ, कम लिखो और ज्यादा कॉमनसेंस से सोचो और बोलो, हिन्दी में ज्यादा लिखने वाले को खराब और कम लिखने वाले को ज्यादा बेहतर माना जाता है।गोया ज्यादा लिखना पतन की निशानी हो !

आलोचना में गतिरोध का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण है आलोचना का वाचिक परंपरा तक सीमित रहना।अकादमिक अनुशासन,लिखित रूप में आलोचना के कम से कम प्रयास हुए हैं। आलोचना में ढर्रे पर सोचने की आदत है। आलोचना के ठहराव का एक अन्य कारण यह भी है उसमें सामान्यत: हीनताबोध है ,कुछ लोग यह मानकर चलते हैं कि गंभीर आलोचना तो फलां-फंला आलोचक ही कर सकता है, हम तो बेहतर सोच ही नहीं सकते।वहीं दूसरी ओर सोचने वाले आलोचकों की हालत इस कदर पतली है कि वे सोचते और पढ़ते कम बोलते ज्यादा हैं। अथवा दोहराते ज्यादा हैं। दोहराने वालों अथवा वाचाल किस्म के आलोचकों में आलोचनात्मक विनम्रता नहीं है,वे अन्य को कम पढ़ते हैं,जिसे पढ़ते हैं उसका नाम ,संदर्भ छिपाते हैं, अन्य की बातों को अपने नाम से,मौलिक समीक्षा के नाम से चलाते हैं । अपने लेखन में हिन्दी के अनुसंधान कार्य को उल्लेख योग्य नहीं समझते। इस सबका परिणाम है आलोचना में पैदा हुआ मौजूदा गतिरोध।

संभवत: हमारे स्वनाम धन्य आलोचकों को आलोचना में गतिरोध नजर ही न आए। यदि वे स्वाभाविक रूप में सोच रहे हैं कि गतिरोध नहीं है तो वे गलत हैं।सवाल किया जाना चाहिए हिन्दी में 'कविता के नए प्रतिमान' के बाद आलोचना की कोई भी उल्लेखनीय कृति क्यों नहीं आयी ?यानी तीस साल से ज्यादा समय गुजर चुका है और आलोचना में किसी कृति का न आना उल्लेखनीय दुर्घटना ही कही जाएगी। यह बात दीगर है कि इस दौर में नामवरजी के हजारों व्याख्यान हुए हैं,आलोचना में अनेक संपादकीय लेख आए हैैं, किंतु उनके द्वारा आलोचना की किसी किताब का न आना,महज संयोग नहीं है। इसी तरह रामविलास शर्मा 'निराला की साहित्य साधना' के बाद आलोचना की कोई महत्वपूर्ण किताब नहीं दे पाए। जबकि इस बीच उनकी डेढ़ दर्जन किताबें आयीं। मै यहां आलोचना की मुकम्मल किताब के संदर्भ में ध्यान खींच रहा हूँ। इस तथ्य की ओर ध्यान खीचने का अर्थ यह नहीं है कि इस बीच आलोचना में कुछ भी लिखा ही नहीं गया। लिखा गया है ढ़ेरों किताब आई हैं , हजारों लेख छपे हैं, हमने शब्दों और तर्कों के मैदान में परास्त करने का शास्त्र रचा है,आलोचना नहीं रची है। आलोचना जब परास्त करने, एक-दूसरे को ओछा दिखाने, मीन-मेख निकालने,छिद्रान्वेषण करने और बदनाम करने के लिए लिखी जाती है तो उसे आलोचना नहीं कहते। नामवर सिंह के द्वारा दिए गए असंख्य साक्षात्कार धीरे-धीरे किताबी शक्ल में आने शुरू हो गए हैं।उनका संवाद और साक्षात्कार विधा के रूप में मूल्यांकन होना अभी बाकी है। किंतु जब हम हजारीप्रसाद द्विवेदी के शताब्दी समारोह के अवसर पर बातें कर रहे हों तो हमारे सामने ज्यादा गंभीर समस्या आ खड़ी होती है। द्विवेदीजी की आलोचना सुनियोजित आलोचना है,आलोचना के अनुशासन को केन्द्र में रखकर लिखी गयी आलोचना है। इस बीच में यह प्रश्न भी विचारणीय है कि आलोचना किसे कहते हैं ?

आलोचना का कोई एक रूप,प्रकार,स्कूल आदि तय करना मुश्किल है,आलोचना अनेकरूपा है। आलोचना को किसी एक स्थान,एक विचारधारा आदि में सीमित करके देखना सही नहीं होगा। हम जब आलोचना का वर्गीकरण करते हैं तो यह एक स्वाभाविक कार्य है,क्योंकि प्रत्येक किस्म की आलोचना स्वयं की संरचनाओं की भी आलोचना होती है। अच्छी आलोचना वह है जो आत्म-चेतस हो। चूंकि हिन्दी में आलोचना की आकांक्षा अभी भी बची है,बिखरे हुए रूप में आलोचना लिखी जा रही है अत: वह मौजूदा ठहराव से भी मुक्त होगी। आलोचना का स्वरूप बदलेगा। आलोचना का नया बदला हुआ रूप बहुत कुछ सम-सामयिक विचार,संचार तकनीक,पध्दति और इण्टरडिसिपिलनरी एप्रोच पर निर्भर है।आलोचना जितना एकांगी दायरों की कैद से मुक्त होगी वह ज्यादा जनतांत्रिक होगी। मसलन् नए दौर में आलोचना भी अपने को वर्चुअल बना चुकी है। आलोचना के वर्चुअल होने का अर्थ है आलोचना का अकेलापन। पहले आलोचना साहित्य से जुड़ी थी,साहित्य के पाठक से जुड़ी थी,आलोचक,लेखक और कृति के बीच प्रत्यक्ष संबंध था,किंतु लंबे समय से यह संबंध टूट चुका है। लेखक और आलोचक के बीच अंतराल पैदा हो गया है।

आज स्थिति यह है कि आलोचक और लेखक दोनों में अपना अस्तित्व बनाए रखने की इच्छा तो है किंतु दोनों में एक साथ रहने,संवाद करने और एक-दूसरे से सीखने और सिखाने की आकांक्षा खत्म हो गयी है। फलत: लेखक अकेला है और आलोचक भी अकेला है। दोनों में अलगाव पैदा हो गया है। अब ये दोनों एक-दूसरे से सिर्फ प्रशंसा चाहते हैं,आलोचना नहीं चाहते। आलोचना रचना का स्पर्श करके निकल जाती है जिसे हम पुस्तक समीक्षा के नाम से जानते है।पुस्तक समीक्षा आलोचना का स्पर्श है,आलोचना नहीं है। रचना से बड़ा लेखक का अहं हो गया है। लेखक आलोचक की कंपनी पसंद करता है किंतु आलोचना पसंद नहीं करता,आलोचना करते ही नाराज हो जाता है। आलोचना वह है जिसमें विश्लेषण हो,व्याख्या हो,गहराई में जाकर विवेचन किया गया हो,शब्दों के बाहुल्य,शब्दों के अभाव को आलोचना नहीं कहते। रचना के मर्म का उद्धाटन किया जाय। आलोचना का काम यह भी है कि वह रचना को उसके व्यक्त लक्ष्य के परे ले जाय,पाठक को अनुशासित करने की बजाय खास किस्म की गतिविधि के लिए प्रेरित करे। आलोचना का बुनियादी कार्य है प्रतिरोध करना और धर्मनिरपेक्ष बनाना।जो आलोचना कठमुल्लापन अथवा पोंगापंथीभाव पैदा करती है उसे आलोचना नहीं कहे।आलोचना को जनतंत्र चाहिए। आलोचना और जनतंत्र की प्रक्रियाओं के गर्भ से धर्मनिरेक्ष समीक्षा विमर्श पैदा होता है। हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना स्वभावत: प्रतिरोधी और धर्मनिरपेक्ष है,(इसकी केन्द्रीय कमजोरी है पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष का अभाव)।

इन दिनों विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं,टीवी चैनलों आदि में जो साहित्य समीक्षा आ रही है उसका साहित्य की बजाय मासकल्चर से संबंध है।वह मासकल्चर का हिस्सा है।यह अचानक नहीं है कि साहित्य के हिन्दी में सबसे बड़े आलोचक के रूप में नामवर सिंह जाने जाते हैं,इन्हें ही मासकल्चरीय पुस्तक समीक्षा प्रमुख समीक्षक भी कहा जा सकता है। यही कार्य अपने-अपने तरीके से अनेक साहित्यिक पत्रिकाएं भी कर रही हैं।इस समीक्षा का मूल लक्ष्य है किताब का बाजार तैयार करना,प्रकाशक का मुनाफा बढ़ाना,लेखक की प्रतिष्ठा में इजाफा करना। इसमें लेखक और किताब जनप्रिय बनाने,प्रशंसक पैदा करने का प्रमुख भाव होता है। एडवर्ड सईद के शब्दों में 'आलोचना की भूमिका बुनियादी तौर पर मूलगामी, धर्मनिरपेक्ष,अन्वेषकीय और तुलनात्मक रूप से गतिशील होती है।' आलोचना मूलत: बौध्दिक और विवेकपूर्ण (रेशनल) गतिविधि है।

हमें रामचन्द्र शुक्ल-हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना पध्दति से सीखना चाहिए।खासकर हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना पध्दति में नए के प्रति आग्रह है,पुराने और रूढिगत विचारों और भावों से मुक्ति की छटपटाहट है। नए के प्रति जिस तरह का आग्रह है उसमें खास किस्म का जोखिम भी है। द्विवेदीजी की आलोचना जोखिमों से भरी है।

अस्मिता ,स्मृति और आलोचना पध्दति - हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की आलोचना के बारे में एक निष्कर्ष यह रहा है कि वे मानवतावादी आलोचक हैं। संभवत: मानवतावादी आलोचक के रूप में अन्य किसी को वर्गीकृत नहीं किया गया है। मजेदार बात यह है कि यह वर्गीकरण मार्क्‍सवादी आलोचकों ने दिया है जो स्वयं को उनकी परंपरा में रखकर देखते रहे हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदीजी की आलोचना की बुनियाद है अस्मिता और स्मृति की राजनीति। पश्चिम बंगाल के शांतिनिकेतन में स्थित विश्वभारती के माहौल में जिन दिनों भारत की अस्मिता बचाने की पुरजोर कोशिशें चल रही थीं उस समय द्विवेदीजी यहां आते हैं। भारतीय अस्मिता की रक्षा में समूचा रवीन्द्र स्कूल लगा हुआ था,इस क्रम में जहां एक ओर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के द्वारा निर्मित अस्मिता की राजनीति को चुनौती दी जा रही थी, वहीं दूसरी ओर भारतीय कठमुल्लों के द्वारा निर्मित अस्मिता को भी चुनौती दी गयी। अस्मिता के इन दोनों ही रूपों को चुनौती देने के लिए जरूरी था कि अस्मिता और स्मृति का नया संसार रचा जाय।

ब्रिटिश राजनीति के मुताबिक हमारा अतीत अंधकारमय था,वहीं कठमुल्लों के लिए अतीत में सब कुछ सुंदर था, इन दोनों में एक बात पर एका था कि दोनों का अतीत के प्रति आलोचनात्मक रवैयया नहीं था,दोनों के पास चयन का परिप्रेक्ष्य नहीं था। दोनों के लिए अतीत पूर्णत: निष्पन्न था। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने पहलीबार अतीत की निष्पन्नता को निशाना बनाया और आलोचना में सबसे पहले यह तथ्य पध्दति के रूप में रेखांकित किया कि अतीत कोई निष्पन्न या कम्प्लीट,अपरिवर्तनीय तत्व नहीं है।बल्कि उसे बार-बार निर्मित किया गया है। अतीत का जो भी बोध हमारे पास है उसका अतीत से कम वर्तमान के नजरिए से ज्यादा संबंध है। अतीत को अतीत के नजरिए से नहीं वर्तमान के नजरिए से देखा जाना चाहिए। वर्तमान के नजरिए से अतीत को देखने का अर्थ है अतीत को परिवर्तनीय,गतिशील और निरंतर अपडेटिंग की प्रक्रिया का हिस्सा बना देना। जिस तरह वर्तमान अपने को अपडेट करता है,अतीत भी मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन के जरिए अपडेट करता है।यह स्वाभाविक प्रक्रिया है।मजेदार बात यह है कि अतीत को अपडेट करने का यह काम हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद हिन्दी में बंद हो गया।

हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना की केन्द्रीय विशेषता यह है कि इसमें विमर्श के सामंती,औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी इन तीनों ही पैराडाइम को आधार नहीं बनाया गया है। वे इनसे जुड़ी किसी भी केटेगरी का भी इस्तेमाल नहीं करते।इसके अलावा उनका समूचा विमर्श अवधारणाओं के रूप में सामने आता है।हिन्दी में पहलीबार अवधारणाओं का खजाना सामने आता है।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने यदि मुकम्मल साहित्येतिहास दिया तो हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इतिहास और आलोचना को अवधारणाओं में सोचने का मंत्र दिया।हजारीप्रसाद द्विवेदी के पहले हमारे पास मौलिक अवधारणाएं बहुत कम थीं। अवधारणाओं में सोचने का अर्थ है अस्मिता के निर्माण का सैध्दान्तिक आधार तैयार करना। अस्मिता,अवधारणा और स्मृति इन तीन तत्वों का व्यापक स्तर पर प्रयोग द्विवेदीजी की आलोचना की केन्द्रीय विशेषता है।वे इन तीनों के बीच में अन्तस्संबंध भी मानते हैं। इन तीनों का लक्ष्य है मनुष्य की परिवर्तनीय अवस्था को सामने लाना।मनुष्य और साहित्य के अन्तस्संबंध को सामने लाना, इस क्रम में उन्होंने आलोचना पध्दति में प्रक्रिया और ऐतिहासिकता की धारणा का व्यापक स्तर पर इस्तेमाल किया है। ऐतिहासिक प्रक्रिया बदलती है तो साहित्य भी बदलता है। परंपरा भी बदलती हैं।अस्मिता भी बदलती है।ऐतिहासिक प्रक्रिया के आधार पर ही परंपरा और संस्कृति का मूल्यांकन पेश किया । द्विवेदी जी के यहां ऐतिहासिक प्रक्रिया के साथ मूल्य,विश्वास,अभ्यास,व्यवहार,विमर्श आदि जुडे हैं।जबकि साम्राज्यवादी और सामंती दोनों ही दृष्टियों में इसके प्रति घृणा और विरोध का भाव है।दूसरी महत्वपूर्ण पध्दतिगत विशेषता यह है कि वे ऐतिहासिकता को प्रतिवाद के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करते हैं। आलोचना पध्दति की चौथी विशेषता है वर्चस्व का अस्वीकार । आलोचना में भेद बुध्दि , छोटे- बड़े, शिक्षित-अशिक्षित, जनप्रिय साहित्य और साहित्य, केटेगरी के यांत्रिक प्रयोग का निषेध।साहित्य के सभी रूपों को समानता की नजर से देखना।

साम्राज्यवादी चिंतकों का मानना था कि सभ्यता और संस्कृति का प्रकाश भारत में तब आया जब उनका शासन आया, द्विवेदीजी ने इस धारणा का अपनी अनेक कृतियों में बार-बार खंण्डन किया है।इस क्रम में वे संस्कृति के विमर्श को औपनिवेशिकता और साम्राज्यवाद के पैराडाइम के बाहर ले जाते हैं।वे संस्कृति को साम्राज्यवादी निर्मिति नहीं मानते।वे संस्कृति के विमर्श को साम्राज्यवादी हमले और वर्चस्व के दायरे के बाहर ले जाकर विश्लेषित करते हैं। वे संस्कृति को औपनिवेशिक परिवेश के बाहर रखते हैं।वे साम्राज्यवादी विचारधारा के द्वारा किए गए लिंगभेद को भी नहीं मानते। लिंगभेद की साम्राज्यवादी समझ है कि लिंगभेद स्वाभाविक है। वह जैसा है उसे वैसा ही मानो,बनाए रखो। साम्राज्यवादी विचारकों ने संस्कृति के विमर्श को लिंगभेद,राष्ट्रवाद,नस्ल,बॉयोलॉजी आदि के साथ जोड़कर पेश किया।संस्कृति के साथ ये सारे पदबंध द्विवेदीजी अस्वीकार करते है।संस्कृति को मानवीय विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया में रखकर परिवर्तनीय रूप में देखते हैं। बल्कि अनेक स्थानों पर संस्कृति को कारण और प्रभाव के दायरे से आगे ले जाकर ज्यादा जटिल रूप में देखते हैं। द्विवेदीजी के लिए संस्कृति ज्ञान का आधार है,ज्ञान अर्जित करने का प्रकार है। इस क्रम में वे संस्कृति और ज्ञान के अन्तस्संबंध को उद्धाटित करते हैं। इसका प्रधान कारण यही है कि साम्राज्यवादी विचारकों के द्वारा संस्कृति के बहाने हमारे ज्ञान को ही प्रदूषित करने ,विकृत करने, साधारण्ा जनता को ज्ञान से वंचित करने का प्रयास किया था,संस्कृति हमारे सांस्कृतिक रूपों का ही खजाना नहीं है,बल्कि ज्ञान का भी खजाना है,संस्कृति को जानने का अर्थ है नॉलेज सोसायटी में दाखिल होना।संस्कृति के जरिए अवधारणा,वस्तु,विचार,मूल्य आदि के निर्माण की प्रक्रिया का ज्ञान होता है। यही वजह है कि वे सांस्कृतिक रूपों को प्रतिरोध के रूपों के तौर पर विकसित करते हैं।साम्राज्यवादी विचारकों ने संस्कृति को नस्ल,साम्प्रदायिकता, धर्म, राष्ट्रवाद और जीवन शैली से जोड़ा,इसके प्रत्युत्तार में द्विवेदीजी ने संस्कृति को ज्ञान और प्रतिरोध से जोड़ा।ज्ञान और प्रतिरोध उनकी अस्मिता की धुरी हैं। साम्राज्यवादी अस्मिता की धारणा में सब कुछ अनालोचनात्मक रूप से स्वीकार कर लेने का भाव है। जबकि द्विवेदीजी द्वारा वर्णित या निर्मित अस्मिता में आलोचनात्मक विवेक मूलाधार है। इसके अलावा अस्मिता के लिए परिप्रेक्ष्य की धारणा का महत्व है। परिप्रेक्ष्य के आधार पर ही वे साम्राज्यवादी आधुनिकता से अपने को अलगाते हैं। साम्राज्यवादी आधुनिकता में परिप्रेक्ष्य का कोई महत्व नहीं है।जो परंपरा में है वह सब कुछ स्वीकार्य है। जबकि द्विवेदीजी परिप्रेक्ष्य और चयन की धारणा का इस्तेमाल करते हैं।साम्राज्यवादी धारणा में संस्कृति के प्रति प्रभुत्व और उल्लंघन अथवा अवमानना का भाव है।जबकि द्विवेदीजी के यहां संस्कृति के क्षेत्र में प्रभुत्व के विचार का अभाव है,वे एक नहीं अनेक संस्कृतियों की ओर संकेत करते हैं,सबके प्रति समान नजरिया अपनाते हैं। वे संस्कृति के निर्माण की प्रक्रिया में सत्ताा की भूमिका को ज्यादा महत्व नहीं देते।इसके विपरीत संस्कृति की अन्तर्क्रियाओं को उद्धाटित करते हैं। संस्कृति की खोज में साम्राज्यवादी विचारकों के द्वारा सामाजिक और ऐतिहासिक अनुमानों का सहारा लिया गया है ,इसके विरीत द्विवेदीजी अनुमान की बजाय तर्क और प्रमाण को ज्यादा महत्व देते हैं।

साम्राज्यवादी चिन्तकों के यहां 'डिस्‍कवरी' या खोज पर जोर है,अनुमान इसकी धुरी है।इसके विपरीत द्विवेदीजी आलोचना पध्दति के रूप में 'डिशकवरी' की धारणा की उपेक्षा करते हैं।इसके प्रत्युत्तार में ऐतिहासिक नजरिए से संस्कृति की व्याख्या और परिवर्तनों को सामने लाते हैं, वे जाने-अनजाने यह संदेश भी देते हैं कि संस्कृति हमारी स्मृति और विलुप्त स्मृति है। इसे खोज के जरिए नहीं बल्कि ऐतिहासिक नजरिए से परंपरा की निरंतरता के क्रम में ही पढ़ा जाना चाहिए।द्विवेदी जी भारतीय समाज और संस्कृति की इमेज को भारतीय अवधारणाओं,इमेजों,प्रतीकों आदि में पेश करते हैं। इस क्रम में भारतीय कथा की परंपरा और नयी पहचान के रूप में चार महत्वपूर्ण उपन्यास लिखते हैं।पाठात्मकता(टेक्स्चुएलिटी) के देशज रूपों को सामने लाते हैं।पाठात्मकता के जिन रूपों का उन्होंने अपने उपन्यासों में इस्तेमाल किया है। उसमें उपन्यास के ढ़ांचे के बारे में प्रचलित साम्राज्यवादी अथवा औपनिवेशिक आधारों को एकसिरे से अस्वीकार किया है। उपन्यास का पाठ और चरित्र या कहानी सार्वभौम होती है,इस धारणा को खंडित किया है। द्विवेदीजी के चारों उपन्यास 'सार्वभौमत्व' की अवधारणा के खिलाफ सशक्त हस्तक्षेप हैं। 'सार्वभौमत्व' की धारणा औपनिवेशिक विमर्श का हिस्सा है, प्रतिनिधि पात्र और प्रतिनिधि परिस्थितियों के चित्रण का नजरिया औपनिवेशिकता का हिस्सा है, इन सबको अस्वीकार करते हुए द्विवेदीजी उपन्यास को विशिष्ट धरातल पर ले जाते हैं। द्विवेदीजी के उपन्यासों का कथानक,पात्र,चित्रण आदि किसी भी किस्म के औपनिवेशिक केटेगरी के दायरे में नहीं आता। एक आलोचक के नाते वे उपन्यासों में जिस तरह के कथानक को उठाते हैं उसमें कहानी और स्मृति का सुगठित रूप सामने आता है। कहानी और स्मृति का आधार क्षणिक आवेग की अनुभूतियां नहीं हैं,किसी घटना विशेष को आधार नहीं बनाया गया है बल्कि कहानी के बहाने स्मृति के सुचिंतित विमर्श को सामने लाते हैं।

चारों उपन्यासों में प्रेम कथा मूल कथा है। इस कथा में शासक और शासित का फर्क नजर नहीं आता,प्रेमकथा के तानेबाने में सारे पात्र और मुख्य कथानक समान रूप से शिरकत करते हैं। पुराने आख्यान को उपन्यास के रूप में पेश करते हुए वे कहीं पर भी कथानक में 'अन्तनिर्भरता' के तत्व का इस्तेमाल नहीं करते,खासकर मुख्य पात्र और कथानक का मुख्य हिस्सा शासकों पर निर्भर नहीं है। कथानक में 'अन्तनिर्भरता' के तत्व को खत्म करके द्विवेदी जी ने पात्रों और कथानक के माध्यम से साम्राज्यवादी 'अन्तनिर्भरता' को चुनौती दी है। 'वर्चस्व' की धारणा को चुनौती दी है।मजेदार बात यह है कि चारों उपन्यास हिंसा से एकदम मुक्त हैं। किसी भी किस्म के हिंसाचार को कथानक में न आने देना साम्राज्यवादी हिंसाचार का प्रत्युत्तार है। वे प्रेम को प्रतिवाद की भाषा में पेश करते हैं। संस्कृति और उसके विमर्श को मानवीय अस्तित्व का बुनियादी आधार बनाते हैं। साम्राज्यवादी विचारकों ने भारतीय परंपरा में भिन्नता या भेदों को व्यापक रूप में उभारा था, इसके प्रत्युत्तार में द्विवेदीजी ने सांस्कृतिक आदान-प्रदान,अनुभवों के आदान- प्रदान, साझेपन पर ज्यादा जोर दिया है,द्विवेदीजी के पात्र मतभिन्नता से ज्यादा मतैक्य की ज्यादा बातें करतें हैं,इनमें एक-दूसरे के प्रति 'शेयरिंग' का भाव है। द्विवेदीजी के उपन्यासों में कहानी पुरानी है, किंतु सरोकार और भावबोध नया है,रवैयया नया है। इन चारों उपन्यासों के जरिए वे किसी भी किस्म का नॉस्टेल्जिया पैदा नहीं करते।बल्कि अतीत को नये उभरते जगत की संगति में निर्मित करते हैं। वे क्रमश: अपने द्वारा निर्मित विमर्शों को अपदस्थ करते जाते हैं।बाणभट्ट की आत्मकथा से लेकर अनामदास का पोथा तक का औपन्यासिक विमर्श अदस्थीकरण के तत्व का इस्तेमाल करता है।इस क्रम में वे लगातार नए विमर्श उठाते हैं। इन चारों उपन्यासों में कोई न तो आदर्श पात्र है और न आदर्श विचार है। 'आदर्श' अथवा आइडियल का इस तरह विखण्डन अन्यत्र दुर्लभ है। द्विवेदीजी के पात्रों में 'असहमति' के तत्व का व्यापक रूप में इस्तेमाल किया गया है,इसके लिए उन्होंने सबसे पहले वर्चस्व की संरचनाओं को कमजोर बनाया है।वर्चस्व को अस्वीकार किया है। विभिन्न पात्र किसी न किसी तरह वर्चस्व को अस्वीकार करते हैं,असहमति के स्वर में बोलते हैं। 'वर्चस्व' का अस्वीकार और 'असहमति' के तत्व का व्यापक इस्तेमाल औपनिवेशिक और उत्तार औपनिवेशिकता का अस्वीकार है। साथ ही उनके पात्र औपनिवेशिक युग में निर्मित वर्गीकरण की केटेगरी का भी निषेध करते हैं।मसलन् नए और पुराने ,आधुनिकता बनाम प्राचीनता ,विज्ञान बनाम पोंगापंथ,विज्ञान बनाम बर्बरता का भेद नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि 'भेद' की केटेगरी को किसी भी रूप में द्विवेदीजी ने अपने उपन्यासों की संरचना में इस्तेमाल नहीं किया है। उपन्यास को संरचनात्मक तौर पर 'भेद' की केटेगरी के बाहर ले जाने का मूल मकसद है औपनिवेशिक विमर्श को चुनौती देना। हमारे समाज में 'जातिभेद' सबसे बड़ा 'भेद' है।इस 'भेद' का उल्लेख करने से कोई नहीं बचा है। सवाल यह है कि क्या साहित्य कृति या इतिहास में 'जाति' का उल्लेख 'भेद' के औपनिवेशिक दायरे में ले जाता है या नहीं ? यहां यह देखना रोचक होगा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपने इतिहास में लेखक के संदर्भ में 'जाति' का इस्तेमाल करते हैं,जबकि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लेखक के संदर्भ में 'जाति' का इस्तेमाल नहीं करते। 'जाति' हमारे यहां 'भेद' का हिस्सा है,द्विवेदीजी अपनी रचनाओं में 'भेद' के परे जाते हैं। प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में 'जाति' को 'भेद' से जोड़ा,'व्यवस्था' से जोड़ा,द्विवेदीजी इसके परे जाते हैं। भारत के इतिहासकारों ने इतिहास लिखते समय 'जाति' को इतिहास का हिस्सा बनाकर पेश किया,जाति का इतिहास का हिस्सा बन जाने से समस्या और भी जटिल हुई है। जाति का जनगणना का हिस्सा बन जाने से जाति व्यवस्था पहले से ज्यादा पुख्ता हुई है। औपनिवेशिकता ने 'जाति' को भारतीय संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बनाया ,संस्कृति का मर्म बताया,आचार्य द्विवेदीजी ने संस्कृति के विमर्श में जाति को कभी मर्म तो दूर की बात है, हाशिए पर भी जगह नहीं दी है।बल्कि उपन्यासों में एथनिक पहचान का इस्तेमाल जरूर किया है। द्विवेदीजी के यहां 'जाति' प्रमुख नहीं है,पेशा प्रमुख है, व्यक्ति के गुण प्रमुख हैं। जबकि प्रेमचंद के यहां जाति और गुण का चित्रण है साथ ही जाति वर्चस्व के रूपों का चित्रण है। इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रेमचंद 'जातिप्रथा' के समर्थक थे,बल्कि इसका अर्थ यह है कि प्रेमचंद औपनिवेशिक केटेगरी के परे जाकर सोच नहीं पाते,द्विवेदीजी इस दायरे का अतिक्रमण कर जाते हैं। इसी से जुड़ी एक और समस्या है वह है 'जातिभेद' का उद्धाटन क्या साम्राज्यवाद के पक्ष में जाता है या विपक्ष में ? रामचन्द्र शुक्ल और प्रेमचंद के पक्षधरों को इस सवाल के पेंच खोलने चाहिए।

'जातिभेद' के प्रश्नों को खोलने में देरिदा के 'डिफरेंस' से भी कोई मदद नहीं मिलेगी। इसका प्रधान कारण यह है कि 'डिफरेंस' में निरंतर स्थगन का भाव है। इसका अर्थ है ' डिफरेंस' का निरंतर बने रहना। 'अदर' की संरचनात्मक अनुपस्थिति। 'अदर' या 'डिफरेंस' की धारणा असंपूर्ण धारणा है। इससे 'अदर' की मुक्ति संभव नहीं है।

द्विवेदी जी के उपन्यासों में 'सार्वभौम' की धारणा का व्यापक रूप से निषेध मिलता है। सार्वभौम की धारणा संकुचित धारणा है,यह यूरोप के प्रतिगामी सोच से उपजी धारणा है भारत जैसे वैविध्यपूर्ण देश के लिए यह धारणा एकसिरे से अप्रासंगिक है। सच यह है कि यथार्थ के जिस सार्वभौम रूप की हम अभी तक पूजा करते रहे हैं उसमें यथार्थ के वैविध्य का नकार छिपा है। सार्वभौम यथार्थ से भिन्न यथार्थ का कैनवास काफी बड़ा है।यथार्थ का एक रूप सार्वभौम हो सकता है किंतु यथार्थ का वही एकमात्र आदर्श मानक नहीं हो सकता। साहित्य में यथार्थ के उतने ही मानक होंगे जितने व्यक्ति समाज में हैं,अत: यथार्थ की सार्वभौम केटेगरी बेकार और संकुचित केटेगरी है।

इसी तरह नैतिकता का कोई सार्वभौम मानक नहीं हो सकता, एक जैसी नैतिकता नहीं हो सकती है, सार्वभौम के बहाने हमारे साहित्य में औपनिवेशिकता ने जिस तरह स्वातत्रयाेत्तार आलोचना में प्रवेश किया है उससे मुक्त होने का रास्ता द्विवेदीजी के यहां से निकलता है।'सार्वभौम' की खोज के आधार पर प्रेमचंद का टालस्टाय,लु शुन आदि के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया गया,जो गलत है।कालान्तर में यथार्थवाद संबंधी बहस के दौरान भी आलोचकों ने 'सार्वभौम' के तत्व के आधार पर साहित्य की आलोचना की। इसके कारण समूची बहस बहुत ही संकुचित दायरे में केन्द्रित होकर रह गयी। यथार्थ वही नहीं है जो किसी बड़े लेखक ने चुना है और बहस के केन्द्र मे है,साहित्य वह भी है जो सार्वभौम नहीं है ,अज्ञात है और बहस के दायरे के बाहर है।

द्विवेदीजी के उपन्यासों में नायक या हीरो कोई नहीं है,उनके उपन्यासों की समूची संरचना इस तरह तैयार की गई है कि उसमें वे हीरो की अवधारणा को ही खंडित करते नजर आते हैं। हीरो वह है जिसके अनुयायी भी हैं,यानी हीरो और अनुयायी ये दो केटेगरी उपस्थित होनी चाहिए। दोनों में भेद होना चाहिए।द्विवेदीजी के यहां हीरो और अनुयायी में भेद नहीं है। द्विवेदीजी के पात्र व्यक्ति और समुदाय की अनुभूतियों को व्यक्त करते हैं। द्विवेदीजी के उपन्यासों का वैशिष्टय यह है कि इन्हें आप जब भी पढ़ते हैं तो लेखक की मंशा से भिन्न व्याख्या करने लगते हैं।

द्विवेदी के उपन्यासों में सांस्कृतिक प्रतिरोध का नया मुहावरा रचा गया है। पहला मुहावरा उपन्यासों की भाषा में छिपा है,संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के जरिए अपनी बात कहने का साहस और उसमें जनप्रिय मसलों को पेश करने की शैली विलक्षण है। संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का गद्य इस तरह रचा गया है कि आप सिर्फ भाषा में आनंद की अनुभूति कर सकते हैं।यह जातीयभाषा के दायरे के पहले की भाषिक संरचना है।यह जातीय भाषा के विवादास्पद दायरे को अस्वीकार करने वाली भाषा है। इस भाषा में उन तमाम भाषिक पक्षों का प्रतिवाद किया गया है जिनमें जातीयभाषा उलझती है।इस भाषा का अपना आनंद है,इस गद्य को पढ़ते चले जाने से विचार और भाषा की अनंत भूख पैदा होती है।यह ऐसी भाषा है जो 'पूर्व प्रिंट युग' से जुड़ी है। द्विवेदीजी के उपन्यासों ने इस भाषा को एक नयी पहचान दी है। संस्कृतनिष्ठ भाषा का आनंददायी खेल प्रतिरोध के दूसरे चरण में नये किस्म के ताकतवर कथानक के साथ दाखिल होता है। द्विवेदीजी इसके बहाने कथानक की नयी स्टायल या शैली का निर्माण करते हैं,यह स्टाइल पहले कभी किसी उपन्यासकार ने इस्तेमाल नहीं की। इस कथाशैली के जरिए इतिहास के अछूते और उपेक्षित पहलुओं को द्विवेदीजी सामने लाते हैं। इस क्रम में वे स्वयं की कल्पना को भी मुक्त करते हैं। द्विवेदीजी के प्रतिरोधी स्वर का तीसरा आयाम है मानवता की मुक्ति और मानव समुदाय की मुक्ति। मानव जाति की अपनी परंपरां हैं,टिकाऊ जीवनशैली है,विचारों में वैविध्य है, जीवनशैली में वैविध्य है। किसी भी किस्म की इकसारता उनके चिन्तन का हिस्सा नहीं है।

आलोचना की नयी अवधारणाओं की तलाश- हजारीप्रसाद द्विवेदीजी के आलोचना कर्म की केन्द्रीय उपलब्धि है आलोचना की असंख्य अवधारणाओं का निर्माण। उनकी बनायी अवधारणाएं आलोचना-इतिहास ग्रथों से लेकर उपन्यास तक फैली हुई हैं। मजेदार बात यह है कि प्रत्येक अवधारणा के साथ उसका परिप्रेक्ष्य भी साथ में दिया गया है। जहां मौका मिला है अवधारणा से जुड़ी बहस को खोला है। अवधारणा बनाते हुए उनकर दृष्टि के केन्द्र में वर्तमान है,उनकी बनायी अधिकांश अवधारणाएं वर्तमान आलोचना में प्रासंगिक है। इस प्रसंग में उदाहरण स्वरुप 'मध्यकालीनबोध का स्वरूप' (1970) को लिया जा सकता है। इस किताब के पहले व्याख्यान में आलोचना क्या है ? और आलोचना में किन तत्वों का इस्तेमाल किया जा सकता है,इस पर प्रकाश डालते हुए द्विवेदीजी ने आलोचना को 'साहित्यबोध' से जोड़ा है। इस क्रम में आलोचना के लिए साहित्य और लोकप्रिय साहित्य दोनों की उपयोगिता की ओर संकेत किया है। इसके अलावा साहित्यबोध के लिए 'कभी-कभी बाहर जाने की भी जरूरत' पर जोर दिया है। द्विवेदीजी के अनुसार सबसे बड़ी चीज है साहित्य को समझने के लिए 'बृहत्तर परिप्रेक्ष्य।' आधुनिक जमाने को पुराने जमाने से अलगाते हुए लिखा आधुनिक युग विज्ञान की देन है। मशीनों के आने बाद ही इस युग में नयी समस्याएं और उनके समझाने के लिए नये प्रयत्न सामने आने लगे। राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक स्तर पर मनुष्य परिवर्तित होने के लिए बाध्य हुआ और तेजी से उस युग का जन्म हुआ जिसे हम 'आधुनिक' कहते हैं।पश्चिम के देशों से हमारा सम्पर्क होने के बाद हम इस युग में प्रविष्ट हुए।इस नये युग में व्यक्ति क्रमश: स्वतंत्र होता गया है और भी स्वतंत्र होता जा रहा है। इससे से पहले के युग में मनुष्य और मनुष्य का सम्बन्ध सीधा और प्रत्यक्ष होता था,लेकिन नए युग का सम्बन्ध बाजार के माध्यम से होने लगा है। प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक,राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र तो हो रहा है परन्तु योग्यता और स्वाधीनता बाजार के मूल्यों के द्वारा नियंत्रित होती है। इसके पहले व्यक्ति या तो मालिक होता था,नौकर होता था,दास होता था,मित्र होता था,कवि होता था या आश्रयदाता होता था।आज वह ठीक ऐसा नहीं है।मध्यकालीन युग की चर्चा करते समय हमें इन सम्बन्धों का भी विश्लेषण करना पड़ेगा।

मध्यकाल का मूल्यांकन करते हुए द्विवेदीजी ने इसमें निहित सांस्कृतिक संवत्तिायों का उद्धाटन किया। साथ ही काल-विभाजन के प्राचीन नामकरण (सतयुग वगैरह)में निहित सांस्कृतिक फिनोमिना का नए रूप में विश्लेषित किया। उन्होंने लिखा है 'मध्ययुग' शब्द का प्रयोग काल के अर्थ में उतना नहीं होता ,जितना एक खास प्रकार की 'पतनोन्मुख और जबदी हुई मनोवृत्ति' के अर्थ में होता है।ऐसा माना जाता है कि मध्ययुग का मनुष्य धीरे-धीरे विशाल और असीम ज्ञान के प्रति जिज्ञासा का भाव छोड़ता जाता है तथा धार्मिक विचारों और स्वत: प्रमाण माने जाने वाले आप्त वाक्यों का अनुयायी होता जाता है। साधारणत: आप्त वाक्य समझे ाने वाले ग्रन्थों की बाल-की-खाल निकालने वाली व्याख्याओं पर अपनी समस्त बुध्दि खर्च कर देता है। मध्यकाल के साहित्य से आधुनिक काल को अलगाते हुए द्विवेदीजी ने लिखा कि आधुनिक युग की विशेषता है 'सचेत परिवर्तनेच्छा।' भक्ति साहित्य में परिवर्तन की व्याकुलता है किंतु यह अपने आप में पर्याप्त नहीं है। क्योंकि उसका लक्ष्य है परलोक में मनुष्य को मुक्त करना। भक्ति साहित्य की सीमा यह है कि इसके लेखकों के सामने परिवर्तन का लक्ष्य स्पष्ट नहीं था। मध्यकाल की केन्द्रीय उपलब्धि है ,इसमें शब्द की अपेक्षा अर्थ पर अधिक ध्यान दिया गया है। जीवन को अधिक उपभोग्य और ग्राह्य बनाने पर अधिक बल है।शब्द शक्तियों का विचार किया गया है ,पर,बाल की खाल निकालने की प्रवृत्तिा कम है।साहित्य और कला में उन वस्तुओं पर अधिक बल दिया गया है जो शब्दों द्वारा संकेतित होती हैं,स्वयं शब्द मात्र नहीं हैं। अजन्ता के चित्रों में और तत्कालीन साहित्य में जीवन का उमड़ता प्रवाह मिलता है।यहाँ जो भोग है वह शक्ति से पोषित और संयम से निर्देशित है।संयम लक्ष्य नहीं साधन है;और भोग भी लक्ष्य नहीं;बृहत्तार उपलब्धि का सहायक है। परवर्तीकाल में शब्द प्रधान होता गया है, अर्थ क्रमश: सिमटता गया है।अर्थ से क्रमश: कटता हुआ शब्द,स्तब्ध और प्रयोग-विरहित शैथिल्य को ही जन्म दे सकता है।

मध्यकालीन साहित्य के संदर्भ में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सबसे महत्वपूर्ण बात यह लिखी है कि इस युग के साहित्य के बारे में जानकारी के लिए सिर्फ यह जानना जरूरी नहीं है कि हम यह जानें कि इस काल के साहित्यिक लोगों ने क्या लिखा,बल्कि यह भी जानना जरूरी है कि वे किन बातों को आदर्श या श्रेष्ठ समझते थे। साहित्य के इतिहास और आलोचना में इस पहलू का महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और उनके द्वारा लिखी गयी मध्यकाल के साहित्य की आलोचना इस परिप्रेक्ष्य के लिहाज से अधूरी है। शुक्लजी की आलोचना में विवरण हैं,व्याख्या है,किंतु मध्यकालीन लेखक के आदर्शों का समग्र मूल्यांकन गायब है। मध्यकालीन साहित्य की आलोचना पध्दति के लिहाज से भी यह पहलू महत्वपूर्ण है।

दूसरी महत्वपर्ण बात यह लिखी है कि इस काल में यह मान लिया गया था कि जो कुछ अच्छा था वह पहले के लोग कर गए हैं,नए सिरे से हम केवल उनकी व्याख्या कर सकते हैं।नया कुछ भी देने का दावा प्राय:खत्म हो चुका था।... निस्संदेह व्याख्या करने के बहाने नयी चीज देने का प्रयत्न भी इस काल में किया गया,परन्तु आदर्श बराबर पुराने लोगों की कृतियां ही रही हैं। आलोचना के केन्द्रीय तत्व के रूप में प्राचीन महाकाव्यों में द्विवेदीजी ने 'प्रेम' को रेखांकित किया है। मध्यकालीन अथवा प्राचीन काव्य को समझना है तो 'प्रेम' के बारे में सही समझ जरूरी है। सवाल पैदा होता है कि प्राचीन महाकाव्यों जैसे रामायण,महाभारत आदि में 'प्रेम' को महत्वपूर्ण माना गया,उसी तरह द्विवेदीजी के सभी उपन्यासों में 'प्रेम' केन्द्रीय तत्व है। आखिरकार 'प्रेम' को मूल्यांकन की केन्द्रीय रणनीति के तौर पर द्विवेदीजी ने महत्व क्यों दिया ?

प्रेम- हजारीप्रसाद द्विवेदी का प्रेम को लेकर जो नजरिया है वह स्त्री को सिर्फ शरीर के रूप में देखने,ज्ञानहीन,पिछड़ा,व्यक्तित्वहीन देखने के साम्राज्यवादी नजरिए से एकदम भिन्न है।हजारीप्रसाद द्विवेदी यह मानने को तैयार नहीं है कि व्यक्तित्वहीनता (बधिया औरत) भारतीय स्त्री की अस्मिता से ऐतिहासिक तौर पर जुड़ा फिनोमिना है।स्त्री के व्यक्तित्व और इच्छा को तरजीह देने के कारण प्रेम की एकदम नयी परिभाषा पेश करते हैं। कालिदास की कृति 'कुमारसंभव' का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने लिखा जो प्रेम शारीरिक आकर्षण से उत्पन्न था,वह क्षणभंगुर था,उसमें अशुभ का भविष्य छिपा हुआ था- शकुन्तला के शारीरिक आकर्षणजन्य प्रेम की भी यही कहानी है- परन्तु जो प्रेम तपस्या से उत्पन्न होता है,यह स्थायी होता है और शुभ भविष्य का बीज लेकर आता है।शिव-पार्वती के प्रेम में कालिदास ने इसी महान सिध्दान्त का प्रतिपादन किया है।... कुमार या काम की पराजय नारी के आन्तरिक प्रेम का पराभव नहीं है,बल्कि उसकी महिमा को और भी उज्ज्वल,और भी सरस तथा और भी महान बनाने वाला है। आगे लिखा प्रेम ,संयम और तप से उत्पन्न होता है। मध्ययुग के संस्कृत कवियों के बारे में लिखा कामशास्त्रीय ग्रंथों ने उन पर काफी असर छोड़ रखा था। इसीलिए शारीरिक-विशेषकर कामोत्तोजक अंगों के -सौंदर्य का उन्होंने खुलकर वर्णन किया है। आलोचना में लंबे समय तक कामशास्त्र और काव्यशास्त्र में अंतर नहीं किया जाता था। यह भी धारणा थी कि कामदेवता और कामशास्त्र का रचयिता एक ही व्यक्ति है। किंतु असल में ये दो हैं। कामोद्दीपक क्रिया-कलाप वस्तुत: वैनोदिक समझे जाते थे।

मध्यकाल में प्रेम के तीन तरह के रूप प्रचलन में हैं एक प्रेम वह है जो नियमों का पाबंद है,सत्ताा के तंत्र,मंत्र, विधान से जुड़ा है।दूसरा प्रेम वह है जो 'लोक' से जुड़ा है,तीसरा प्रेम वह है जो न नियम से जुड़ा है और न लोक परंपरा से जुड़ा है बल्कि स्त्री प्रेम के रूप में व्यक्त हुआ है।पहली और दूसरी कोटि के प्रेम के फ्रेमवर्क में रखकर सोचने वाले लेखक प्रेम में पितृसत्ताा को बनाए रखते हैं। पहले कोटि के लिए प्रेम का आदर्श कालिदास आदि महाकाव्य रचयिता हैं,दूसरे किस्म के प्रेम के रचयिता सूफी हैं,कुछ हद तक सूरदास भी हैं,तीसरी कोटि का प्रेम स्त्री के रूप में मीरा का है। प्रेम में पुंसवाद से पहले दो केटेगरी के प्रेम में मुक्ति का रास्ता नहीं दिखता। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने पहले दो किस्म के प्रेम पर ही विचार किया है,स्त्री प्रेम पर विचार नहीं किया है। प्रेम के संदर्भ में वे निश्चित रूप से रामचन्द्र शुक्ल से भिन्न अनेक नयी बातों पर रोशनी डालते हैं,किंतु प्रेम के पितृसत्तात्मक ढ़ांचे के बाहर नहीं जा पाते। पुंसवादी विचारधारा से प्रेम को मुक्त करने का अर्थ है प्रेम में समानता के विचार की स्थापना करना, प्रत्येक किस्म के वर्चस्व का विरोध करना। हजारीप्रसाद द्विवेदी के जिस प्रेम को महान् बताया है,वह मूलत: पितृसत्ताात्मक ही है। हजारीप्रसाद द्विवेदी जिस प्रेम को पसंद करते हैं और महिमामंडन करते हैं वह भी पितृसत्तात्मक है।किंतु इस प्रेम का पुराने पितृसत्तात्मक प्रेम से भिन्न रवैयया है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'मध्यकालीन बोध का स्वरूप' में अश्वघोष की रचनाओं का मूल्यांकन करते हुए लिखा अश्वघोष के काव्यों में दो पक्ष बहुत स्पष्ट रूप से उभरे हैं। संसार में जो कुछ आकर्षक और मोहक है,उसका वे सोल्लास वर्णन करते हैं किन्तु फिरभी वे उससे अभिभूत नहीं होते।,क्षणभंगुर और अस्थिर समझते हैं। द्विवेदीजी ने इसी 'क्षणभंगुर ' और 'अस्थिर' तत्व को कालिदास के प्रेम पर भी लागू किया है। कालिदास के यहां 'तपस्या की आग से परिशोधित प्रेम' की अभिव्यक्ति हुई है। शकुंतला और दुष्यंत के प्रेम के बारे में द्विवेदीजी ने लिखा है, जो प्रेम शारीरिक आकर्षण से उत्पन्न हुआ था,वह क्षणभंगुर था,उसमें अशुभ भविष्य का बीज छिपा हुआ था-शकुन्तला के शारीरिक आकर्षणजन्य प्रेम की भी यही कहानी है - परन्तु जो प्रेम तपस्या से उत्पन्न होता है,वह स्थायी होता है और शुभ भविष्य का बीज लेकर आता है।... कुमारसम्भव में कालिदास ने काम पर जो शिव की विजय दिखाई है,वह प्रेम के निखरने ,उज्ज्वल होने और महिमामण्डित बनने का साधन-मात्र है। इसी प्रेम का एक अन्य आयाम विरह है जो कालिदास के यहां व्यापक रूप में मिलता है। इसी क्रम में लिखा है प्रेम के केन्द्रगत रहस्य को जो कवि नहीं जानता वह किसी प्रकार इतनी विषम परिस्थितियों को नहीं संभाल सकता। सवाल यह है कि प्रेम के किस रूप की हिमायत की जा रही है ? क्या यह 'प्रेम' नियम और असमानता का पाबंद नहीं है , जी,हाँ,यह प्रेम असमानता का पक्षधर है। इसमें खास किस्म के प्रेम का आग्रह है, प्रेम की व्याख्या में पसंदीदा प्रेम के रूपायन को पसंद करना और उसे श्रेष्ठ ठहराना,स्वयं में पितृसत्तात्मकता का पक्षधर होना है,पितृसत्ता के साथ मुश्किल यह है कि वह परिवर्तनीय है, इसमें परिवर्तन करने और अपने मूल स्वभाव -वर्चस्ववादी -को बनाए रखने का गुण है। रामचन्द्र शुक्ल ,हजारीप्रसाद द्विवेदी में पितृसत्ता के सवाल पर बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है। फर्क सिर्फ पितृसत्ता के नए और पुराने रूप का है। हजारीप्रसाद द्विवेदी को प्रेम का वह चित्रण पसंद नहीं है जिसमें स्त्री शरीर प्रमुख नहीं है, वे प्रेम से स्त्री शरीर को अलग करके देखते हैं ,प्रेम को स्त्री शरीर और स्त्री इच्छा से अलग करके देखने का अर्थ है प्रेम को पितृसत्ता के हवाले कर देना। स्त्री का शरीर साधारण शरीर नहीं है,माया नहीं है,वायवीय नहीं है,स्त्री की इच्छाओं का भी यही हाल है। स्त्री शरीर और स्त्री इच्छाओं का कालिदास के यहां जब उद्दामभाव से वर्णन किया जाता है,स्त्री अपने शरीर और इच्छा को लेकर खेलती है तो वे अंश द्विवेदीजी को पसंद नहीं हैं। यहां तक कि पुरूष के अंदर यदि स्त्री के शरीर को लेकर आकर्षण,प्रेम,भावोन्माद आदि को कालिदास ने चित्रित किया है तो वह भी उन्हें पसंद नहीं है। यही स्थिति उनके उपन्यासों में भी है। वहां पर भी स्त्री के शरीर को लेकर खास किस्म का रूख है। प्रेम का शारीरिक आकर्षण द्विवेदीजी को पसंद नहीं है। सवाल उठता है कि स्त्री का शरीर न होता तो काव्य कैसा होता ? प्रेम कैसा होता ? क्या पुरुष स्त्री से प्रेम करता ?समाज कैसा होता ? वैषम्य की सारी जंग स्त्री शरीर या शरीर पर वर्चस्व बनाए रखने के साथ जुड़ी है। पितृसत्ताा का सारा वैचारिक दांव स्त्री शरीर पर ही लगा है और हमारी आलोचना स्त्री शरीर को एकसिरे से ठुकरा रही है। कालिदास और सूरदास की महानता इस बात में नहीं है कि वे प्रेम को शारीरिक आकर्षण्ा के दायरे से बाहर ले जाते हैं,बल्कि इन दोनों लेखकों की महानता इस तथ्य में निहित है कि वे स्त्री के तन और मन दोनों का वायवीय की बजाय ठोस चित्रण करते हैं,स्त्री को वायवीय नहीं बनाते, मानवीय बनाते हैं,स्त्री के शरीर को वैराग्य के हवाले नहीं करते,प्रेम के हवाले करते हैं। वैराग्य पितृसत्ताा का अस्त्र है,प्रेम का शत्रु है।वैरागी प्रेमी नहीं हो सकता है।प्रेम के लिए वैराग्य से मुक्ति जरूरी है। कालिदास से लेकर तुलसी,सूर,मीराबाई आदि का साहित्य वैराग्य की शिक्षा नहीं देता।

स्त्री के शरीर का सामने आने का अर्थ है वैषम्य का सामने आना,सामाजिक वैषम्य का सामने आना, प्रेम में जब लेखक स्त्री शरीर को शामिल करता है तो वह जाने-अनजाने सामाजिक वैषम्य को सामने लाता है। संस्कृत काव्य के सभी लेखकों ने स्त्री के शरीर का वर्णन करते हुए स्त्री शरीर के अग्रभाग को अपने चित्रण के केन्द्र में रखा है। पृष्ठभाग को चित्रण में ज्यादा महत्व नहीं दिया है। खासकर कालिदास ने यह काम काफी किया है। कालिदास की रचनाओं के जो अंश द्विवेदीजी को पसंद नहीं हैं ये वे अंश हैं जो स्त्री शरीर और शारीरिक प्रेम से संबंधित हैं। द्विवेदी जी की आलोचना में इन्हीं हिस्सों की पुंसवादी व्याख्या भी पेश की गई है।इसीलिए उन्होंने लिखा जो प्रेम शारीरिक आकर्षण से उत्पन्न हुआ था, उसमे अशुभ भविष्य का बीज छिपा हुआ था। इस संदर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि संस्कृत के रचनाकारों खासकर कालिदास वगैरह के यहां स्त्री के जिस रूप का चित्रण है अथवा श्रृंगार रस में स्त्री के जिस रूप का चित्रण है,उसे कैसे पढ़ें ? क्या उसकी स्त्रीवादी रीडिंग संभव है ?हमारे पास कामसूत्र से लेकर श्रृंगार रस तक सबकी पितृसत्तात्मक रीडिंग है किंतु स्त्रीवादी रीडिंग नहीं है।

स्त्री के शरीर को रचना और जीवन में पढ़ने या देखने अर्थ है स्त्री की अस्मिता को समझना,स्त्री का शरीर खासकर उसका अग्रभाग का वर्णन या चित्रण स्त्री की अस्मिता और पहचान का बड़ा आधार है। स्त्री के अग्रभाग पर जोर देने का अर्थ है उसकी अस्मिता पर जोर देना,स्त्री और पुरुष के बीच जो वैषम्य है उसे स्वीकार करना, स्त्री के शरीर का अग्रभाग वैषम्य की अभिव्यक्ति है। यदि स्त्री के पृष्ठभाग को उभारा जाता है तो उससे भेद सामने नहीं आता।स्त्री के अलंकारों को उभारा जाता है तो उससे भेद सामने नहीं आता,स्त्री का शरीर अगर उसमें भी अग्रभाग उसकी पहचान का प्रतीक है।स्त्री का पृष्ठभाग उसकी पहचान को छिपाता है। स्त्री के पृष्ठभाग के रुपायन का अर्थ है कि वह पेसिव है,समर्पित है, जिसे भाव या इशारे से बुलाया जा सकता है। कालिदास जैसे लेखकों की महानता का रहस्य प्रेम के वैराग्य वाले अथवा गैर-शारीरिक पक्ष में नहीं है। बल्कि कालिदास प्रेम की उस धारणा का खंडन करते हैं जिसमें प्रेम के एक ही रुप की चर्चा है। कालिदास प्रेम को वायवीय अथवा आत्मा के दायरे की कैद से मुक्त करते हैं।प्रेम के एकाधिक रूपों का चित्रण करते हैं। प्रेम एक किस्म का नहीं होता, उसके अनेक किस्म हैं। कोई लेखक जब ठोस रुप में शरीर को पेश करता है तो सामाजिक जीवन में मौजूद कामुक विभाजन को भी पेश करता है।

पुरूष का यह गुण माना जाता है कि वह चीजों का सामना करे,मुकाबला करे,दूसरे पुरुष को देखे,पुरुष की आंखों में आंखें डालकर बातें करे,सार्वजनिक तौर पर बोले।जबकि औरत को सार्वजनिक स्थान से दूर रखा गया,सार्वजनिक तौर पर अपने हाव-भाव की अभिव्यक्ति न करे, शर्माए।आप देखेंगे कि जब औरत सार्वजनिक स्थान में चलती है तो उसकी नजर नीचे गड़ी होती है।वह जब बोलती है तो अमूमन यही कहती है कि मैं नहीं जानती। कांपती आवाज में बोलती है अथवा भ्रमित भाव से बोलती है। इसके विपरीत पुरुष की आवाज निर्णायक,स्पष्ट और दावे से भरी होती है। सवाल यह है कि क्या कालिदास इस तरह के स्त्री चरित्रों का निर्माण करते हैं ? क्या स्त्री के प्रति कालिदास का रूख मर्दवादी है ?कालिदास की रचनाओं की धुरी स्त्री है,उसका संसार है,मन है,यही स्थिति कमोबेश बाल्मीकि की है। श्रृंगार का सबसे सुंदर चित्रण करने वालों के यहां सबसे कम जिस तत्व या चीज पर शक्ति खर्च की गई है वह है संभोग का चित्रण। संभोग का क्षेत्र पुंस प्रभुत्व का क्षेत्र है।

श्रृंगार का चित्रण स्त्री के व्यक्तित्व की स्थापना का औजार है। स्त्री की अस्मिता सृजन में बनाए रखने का श्रेय श्रृंगार रस के लेखकों को है। हम चाहें या न चाहें किंतु यह सच है कि यदि परंपरा से श्रृंगार साहित्य को निकाल देंगे तो हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा। श्रृंगार रस का एक पक्ष आनंद से जुड़ा है तो दूसरा स्त्री से जुड़ा है। श्रृंगार साहित्य के केन्द्र में स्त्री है और उसका शरीर है। हमें गंभीरता के साथ इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि आखिरकार ऐसा क्यों हुआ कि मध्यकाल में सामंती व्यवस्था में रहते हुए स्त्री को हम गायब नहीं कर पाए ? स्त्री सृजन के केन्द्र में बनी रही। श्रृंगार रस और कामसूत्र का असर अंतत: किसके विमर्श को केन्द्र में लाता है ? स्त्री को केन्द्र में लाता है।स्त्री के वैषम्य को,उसकी अस्मिता,इच्छा और अधिकारों को केन्द्र मे लाता है। श्रृंगार रस में खासकर कालिदास जैसे लेखकों के यहां स्त्री गतिशील है,अगतिशील नहीं है।

नामवर सिंह ने 'दूसरी परंपरा की खोज' मेंलिखा है, प्रेम का ही दूसरा नाम माधुर्य भाव है। समस्या पर्यायवाची शब्द की नहीं है। समस्या यह है कि क्या स्त्री के लिए 'माधुर्य' का अर्थ वही है जो पुरूष के लिए है ? स्त्री के लिए सब दशाओं में दमनीय होने का अर्थ है माधुर्य। अर्थात् स्त्री का वह रुप जो हर समय सुंदर लगे। इसके विपरीत पुरुष के लिए माधुर्य का अर्थ है घबराहट के क्षणों में भी न घबड़ाना। इसी तरह अन्य शब्दों के संदर्भ में भी हमें विचार करना चाहिए।संस्कृत साहित्य में ऐसे बहुत सारे शब्द और भाव हैं जो लिंग की पहचान से जुड़े हैं। यह कैसे संभव है कि भाषा ,विचार और भाव को लिंग से अलग करके देखा जाए। साहित्य में व्यक्त विचार, भाव और भाषा का लिंग की पहचान के साथ गहरा संबंध है। लिंग की पहचान के साथ संबंध के कारण इनमें बुनियादी अर्थभेद पैदा हो जाता है। हमारी आलोचना का नजरिया लिंग के परिप्रेक्ष्य में सिर्फ पुंसवादी है अथवा एकायामी है। हमारी आलोचना ने प्रेम अथवा श्रृंगार को कभी स्त्री के नजरिए से नहीं देखा, पुंसवादी अथवा पितृसत्ता के विरोध की विचाराधारा के रूप में नहीं देखा।

कालिदास की रचनाएं प्रेम और पितृसत्ता के अन्तर्विरोधों को एक ही साथ अभिव्यक्ति देती हैं। श्रृंगार रस के माध्यम से विलासिता और कामुकता के तत्वों पर इस कदर जोर दिया गया कि लेखक यह भूल ही गया कि वास्तविक जीवन में स्त्री को कोई अधिकार नहीं हैं।,ऐसी स्थिति में प्रेम की रचनाएं स्त्री को वायवीय बना देती हैं।वायवीय प्रतिरोध को व्यक्त करती हैं।इससे सत्ताा को कोई चुनौती नहीं मिलती। कामुकता और प्रेम का इतने बड़े पैमाने पर कृतियों में उत्पादन यह संकेत भी देता है कि रचनाकार सामाजिक तौर पर विच्छिन्न है।स्त्री के शरीर और नख-शिख वर्णन में इस कदर खो गया कि उसका वास्तविक जीवन से कोई संबंध ही नहीं रह गया।इसके कारण वह ज्यादा से ज्यादा परफेक्शन की ओर गया,स्त्री का परफेक्शन के जरिए चरम शिखर तक स्पर्श करते-करते अवस्था यह हुई कि स्त्री गायब हो गई और लेखक के हाथ में निर्वैयक्तिक शिल्प और काम-क्रीड़ाएं ही रह गयीं। प्रेम या काम के जो रूप उसने रचे वे अंतर्विरोध रहित हैं,वे उसकर निर्वैयक्तिक कारीगरी के नमूने हैं।यह उसके रचनाशिल्प का इकतरफा रूप है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कुमारसंम्भव का मूल्यांकन करते हुए जो निष्कर्ष निकाला है,वह पितृसत्ताात्मक आलोचना का आदर्श नमूना है। जबकि स्त्रीवादी नजरिए से कुमारसंभव में उमा और शिव का प्यार स्त्री -पुरुष की रहस्यात्मक एकता और भेद को व्यक्त करता है। यहां प्यार में संतुष्टि अथवा असंतोष की भावना व्यक्त नहीं हुई बल्कि एक-दूसरे की इच्छाएं स्वायत्ता रुप में व्यक्त हुई हैं।इच्छाओं का स्वायत्ता रूपायन यह दर्शाता है कि वे एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं। इस तरह के प्यार में जोखिम भी नही होता।प्यार इस तरह की रचनाओं में अकस्मात् व्यक्त होता है।इससे लेखक की ऊर्जा बढ़ती है और आत्मनियंत्रण में वृध्दि होती है। जब लेखक ने उमा-शिव के अंतर को पेश किया तो वह वस्तुत: प्रेमी-प्रेमिका के शारीरिक अंतर को ही दर्शा रहा था।यह भी बताया कि प्रेम की संवेदना अलग-अलग होती है पर लक्ष्य एक ही होता है । संस्कृत की रचनाओं में प्रेमिका की पीड़ा का वर्णन अधिक हुआ है किंतु कालिदास ने विरह में पुरूष की पीड़ा का वर्णन करते हुए पूरा एक महाकाव्य ही रच डाला,जिसे हम मेघदूत के नाम से जानते हैं।

हजारीप्रसाद द्विवेदी पहले आलोचक हैं जो यह रेखांकित करते हैं कि हमारे यहां साहित्य सृजन की परंपरा का प्रधान कारण है विनोद। उन्होंने लिखा है वस्तुत: आलंकारिकों ने जो काव्य के उद्देश्य बताए हैं वह कवि को दृष्टि में रखकर,पाठक को नहीं।पाठकों की ओर से भी यदि उन्हें काव्य के उद्देश्य की बात कहनी होती तो वे निश्चय ही बताते कि काव्य कि काव्य दिल बहलाने के लिए,चतुर होने के लिए और नैतिक बल के दृढ़ीकरण के लिए बनते हैं। द्विवेदीजी ने रस को निचली कोटि की स्त्रैणवृत्ति मानने वालों की तीखी आलोचना की साथ ही यह भी कहा कि रस वस्तु, लौकिक घटनाओं का नाम नहीं है। रस की परंपरा पर विचार करते हुए पहलीबार रस को पाठक के नजरिए से हिन्दी आलोचना में द्विवेदीजी ने ही पेश किया। वरना रस का समूचा विमर्श लेखक के नजरिए से ही पेश किया गया है। रस में भी प्रधान रस श्रृंगार रस है,उस पर ही सबसे ज्यादा रचनाएं और शास्त्र रचे गए।श्रृंगार का प्रधान रस बन जाने के पीछे क्या कारण रहे हैं और आज भी उसे रसराज क्यों कहा जाता है ? अधिकांश रचनाएं श्रृंगार रस में ही क्यों रची गयीं ? द्विवेदीजी ने लिखा है यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि श्रृंगार रस से चित्ता में विकास और वीर रस से विस्तार होता है। इन दो रसों का नायक अनायास ही सामाजिक की समवेदना और सहानुभूति आकर्षित करता है।यही वजह है कि पूर्णांग रूपकों में इन दो रसों का ही प्राधान्य है। विकास और विस्तार को एक ही शब्द में 'विस्फार' कहा जाता है। इस विस्फार के कारण नाटक में वीर और श्रृंगार रस मुख्य होते हैं।

अंग्रेज, ब्रिटिश शासन और द्विवेदीजी - हिन्दी आलोचना का यह दुर्भाग्य है कि उसमें अभी अंग्रेजों के प्रति मोह,भक्ति और आसक्ति बनी हुई है। हजारीप्रसाद द्विवेदी के मन पर ब्रिटिश शासन का सकारात्मक असर था। उन्हें इस शासन की कभी कोई गलती नजर नहीं आयी। सामान्यत: हमने उनके अंग्रेजी शासन के प्रति रूख के बारे में कभी ध्यान ही नहीं दिया। यह सच है कि उनके लेखन और आलोचना में अनेक सकारात्मक तत्व हैं,उनकी आलोचना आज भी रोशनी देती है,अवधारणाओं का खजाना है। इसके बावजूद ब्रिटिश शासन की भूमिका की समग्र समझ का अभाव है। यह उनके लेखन की सबसे बड़ी कमजोरी है। 'हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास' (1952) में उन्होंने लिखा है सन 1860 के बाद देश में पूर्ण रूप से शांति और व्यवस्था कायम हो गई।

सवाल उठता है कि क्या 1857 के बाद देश में शांति स्थापित हो गई थी ? क्या देश में कहीं बगावत नहीं हुई ? क्या देश में शांति और व्यवस्था का शासन स्थापित हो गया ?जी नहीं, तथ्य द्विवेदीजी के इस निष्कर्ष की पुष्टि नहीं करते।इसके अलावा यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि 1857 के प्रति द्विवेदीजी का रूख क्या है ? वे किसके साथ हैं ?यह साल 1857 के स्वाधीनता संग्राम का शताब्दी वर्ष है और द्विवेदीजी का भी जन्म शताब्दी वर्ष है। द्विवेदीजी का मानना है कि 1860 के बाद देश में शांति और व्यवस्था स्थापित हो गई। इस संदर्भ में सिर्फ एक ही तथ्य का जिक्र करना समीचीन होगा। सन् 1859 में सरकार की तरफ से व्यापारियों,डाक्टरों,वकीलों आदि पर लाइसेंस टैक्स का प्रस्ताव पेश किया गया,इस प्रस्ताव का सारे देश में जमकर विरोध हुआ था।इस विरोध के अग्रवर्ती गैर-ब्रिटिश लोग थे। एक अगस्त 1860 से आयकर कानून सारे देश में लागू कर दिया गया, इस कानून का उस समय नाम रखा गया 'गदर कर'। इस कानून के खिलाफ विरोध किस कदर बढ़ गया था,इसका अंदाजा लगाने के लिए उस जमाने के कुछ वक्तव्य हमें संकेत देते हैं। पायनियर ने 3 जनवरी1871 को लिखा भारत में ब्रिटिश सत्ताा को पिछले नौ महीनों में लोगों की दुर्भावनाओं के कारण जितना धक्का लगा है ,वह रणक्षेत्र की आधा दर्जन पराजयों से ज्यादा है। पत्र ने स्वीकार किया कि ब्रिटिश भारत में सब वर्ग और जातियां एक हो गई हैं। कलकत्ता के 'इंडियन डेली न्यूज' ने 22 नवंबर 1870 को स्वीकार किया कि कर विरोधी आंदोलन ने 1857 से ज्यादा एकता कायम कर दी है। 1857 में बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी ने दिल्ली और लखनऊ का साथ न दिया था,लेकिन जाति,भाषा,धर्म और स्वार्थों की विषमता आयकर के मोहन मंत्र के सामने शक्तिहीन हो गयी है। ... आयकर ने साम्राज्य की देशी जातियों को एकता का एक साधारण बिंदु दे दिया है;ऐसी बात जो भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं पाई गई है। कलकत्ता के ही इंग्लिशमैन ने 30 जून 1870 को लिखा सरकार के खिलाफ इतना असंतोष पहले कभी नहीं देखा गया।ब्रिटिश शासकों को सारे देश में विद्रोह की आशंका दिखाई पड़ने लगी। उन्होंने मुल्ला- मौलवियों, पंडा-पुरोहितों से फतवे निकलवाए कि ब्रिटिश राज के खिलाफ जेहाद करना अनुचित है। क्या इन अखबारों के वक्तव्यों के बावजूद यह कह सकते हैं कि 1860 के बाद देश में शांति स्थापित हो गई थी ? एक जगह द्विवेदीजी ने फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के बारे में लिखा अंग्रेज अफसरों ने गंभीरतापूर्वक इस देश की भाषाओं के अध्ययन का प्रयत्न किया। सवाल यह है कि क्या फोर्ट विलियम कॉलेज का लक्ष्य सिर्फ उतना ही था जितना द्विवेदीजी बता रहे हैं ? द्विवेदीजी ने यह भी लिखा है देश में नवीन युग का आरंभ हो गया था,यह यूरोपियन संपर्क का फल था। इसके अलावा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का 1857 के संग्राम के प्रति जो नजरिया है वह संतुलित नहीं है,उन्होंने लिखा है और 1857 ई. में सारी भारतीय जनता विदेशी शासन-नीति से ऊबकर विद्रोह कर बैठी। सवाल पैदा होता है कि क्या भारतीय जनता ने 'ऊबकर' विद्रोह किया था ? आगे लिखा है, एक तरफ तो अंग्रेजों का देशी राज्यों पर अनुचित अधिकार और दूसरी तरफ ईसाई धर्म का इस प्रकार सोत्साह प्रचार,इन दो बातों ने भारतीय जनता को सशंक कर दिया,और शुभ वृध्दि से किए जाने वाले सुधारों के प्रति भी उनके चित्ता में संदेह उत्पन्न कर दिया। इसका विस्फोट सन् 1857 ई. के विद्रोह के रूप में हुआ था।इस विद्रोह की प्रेरणा किसी बड़े लक्ष्य से प्राप्त नहीं हुई थी,इसीलिए इसका परिणाम भी किसी बड़े फल के रूप में नहीं प्रकट हुआ।वह केवल भारतीय जनता के विक्षोभ को प्रकट करके समाप्त हो गया।

क्या 1857 के संग्राम के पीछे कोई कारण अथवा लक्ष्य नहीं था ? क्या इस विद्रोह का कोई परिणाम नहीं निकला ? क्या भारतीय जनमानस को इस विद्रोह ने कोई प्रेरणा नहीं दी ? हिन्दी साहित्य:उद्भव और विकास में द्विवेदीजी का अंग्रेजों के प्रति आकर्षण साफ देखा जा सकता है। सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम को रामविलास शर्मा ने 'महान् जन-क्रान्ति' कहा है। रामविलास शर्मा ने लिखा है, यह संघर्ष जनक्रान्ति इसलिए था कि सारा युध्द जनता को आधार बनाकर चला था। इस क्रान्ति की मूल धारा अंग्रेजी राज्य के विरूध्द थी।उसका मूल उद्देश्य राजनीतिक था-अंग्रेजों को निकालकर देश में अपनी सत्ता कायम करना।इस राजनीतिक उद्देश्य के अन्तर्गत और भी सामाजिक उद्देश्य थे। क्रान्ति ने गरीब आदमियों को सबसे अधिक आन्दोलित किया। इस क्रान्ति में उच्च वर्णों के अलावा निम्न वर्णों ने भी भाग लिया। रामविलास शर्मा ने इसके मूल कारणों पर रोशनी डालते हुए लिखा , क्रान्ति का मूल कारण अंग्रेजों की भूमि व्यवस्था, उनका शोषण और लूट ,उनकी न्याय-व्यवस्था थी। इस व्यवस्था से उत्पन्न क्षोभ ही जनता को एक कर रहा था। यह गहरा असन्तोष हिन्दुओं और मुसलमानों को अंग्रेजों के विरूध्द संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए प्रेरित कर रहा था,यह तथ्य भुलाया नहीं जा सकता। रामविलास शर्मा ने व्यापक परिप्रेक्ष्य बनाते हुए लिखा सन सत्ताावन की भारतीय राज्य क्रांति उन युध्दों की श्रृंखला की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है जिन्हें उपनिवेशों की जनता ने उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप के आतताइयों के विरूध्द छेड़ा था। इस क्रांति की सबसे बड़ी सफलता है अंग्रेज शासक वर्ग और भारतीय जनता में परस्पर विश्वास फिर कभी कायम नहीं हुआ।सन् सत्तावन की राज्यक्रांति की यह सबसे बड़ी सफलता थी। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 1857 के विद्रोह का परवर्ती हिन्दी साहित्य पर कोई प्रभाव भी दर्ज नहीं किया है। जबकि समकालीन साहित्य पर इस विद्रोह ने गहरी छाप छोड़ी। इसके बावजूद एक महत्वपूर्ण तथ्य द्विवेदीजी ने रेखांकित किया है और यह वह तथ्य है जिसको रामविलास शर्मा नहीं मानते। द्विवेदीजी ने लिखा है , रेल तो सन् सत्तावन के विद्रोह का प्रमुख कारण थी और तार उस विद्रोह को दबाने का सफल अस्त्र साबित हुआ था।

हजारीप्रसाद द्विवेदी के 1857 संबंधी नजरिए का मूल्यांकन करने का यह निष्कर्ष न निकाला जाए कि वे अंग्रेजभक्तथे,ब्रिटिशपरस्त थे। द्विवेदीजी पर बंगाल के प्रभाव का यह नकारात्मक पहलू है। बंगाल के प्रभाव के अनेक सकारात्मक पक्षों की नामवर सिंह ने 'दूसरी परंपरा की खोज' में चर्चा की है।किंतु 1857 के संबंध में द्विवेदीजी के नजरिए के बारे में वे किनारा करके निकल गए हैं। 1857 वाले सवाल को छोड़ दें तो द्विवेदीजी के इतिहासबोध में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के सैंकड़ों तीर भरे पड़े हैं। द्विवेदीजी की आलोचना पध्दति का खासकर सबसे ज्यादा महत्व है। वे आलोचना या इतिहास लिखते समय सिर्फ सकारात्मक तत्व पर नजर रखते हैं, नकारात्मक तत्व की अमूमन उपेक्षा करते हैं अथवा हाशिए पर रखते हैं या चलताऊ ढ़ंग से जिक्र करते हैं।

द्विवेदीजी ने भारतेंदु के बारे में जो बातें लिखी हैं ,उनमें से अनेक बातें स्वयं द्विवेदीजी पर घटती हैं,उन्होंने लिखा है उनमें एक विचित्र प्रकार की अंतर्दृष्टि और सहजबोध था। भारतेंदु ने यदि जीवन्त साहित्य की रचना की तो द्वि‍वेदीजी ने जीवन्त आलोचना की रचना की,ऐसे गद्य की सृष्टि की जिसे आप पढ़ते जाइए और सिर्फ पढ़ते जाइए,आप कभी बोर नहीं होंगे।रोलां बार्थ के शब्दों में यह 'पाठ का आनंद' है।

भारतेंदु की तरह ही उनकी आलोचना में दानशीलता का वर्चस्व है।वे अपना सर्वोत्तम को लुटाना चाहते हैं।सर्वोत्तम देकर भी जाते हैं।दूसरी परंपरा की खोज में दिए गए विवरण बताते हैं कि द्विवेदीजी काफी सहज और सरल स्वभाव के थे। भारतेंदु के बारे में वे लिखते हैं जो व्यक्ति सहज होता है ,वही महान् होता है।क्रूरता और वक्रता मनुष्य को सामयिक सफलता देती है,परंतु उनसे स्थायी लाभ नहीं होता। द्विवेदीजी ने भारतेंदु के जिन तीन गुणों की चर्चा की है वे स्वयं उनमें कूट-कूटकर भरे थे।

साहित्य की नयी धारणा- साहित्य की नयी आलोचना और इतिहास दृष्टि के निर्माण के लिए जरूरी है कि साहित्य की नयी धारणा बनायी जाय।साहित्य की नयी धारणा नयी सामाजिक परिस्थितियों के गर्भ से पैदा होती है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने साहित्य की प्रचलित मान्यताओं से भिन्न साहित्य की एकदम नयी धारणा दी। यह धारणा ऐसे दौर में आई जब सारी दुनिया में मानवाधिकारों का व्यापक हनन हो रहा था,मानवतावाद पर हमले हो रहे थे। उस समय साहित्य के बारे में यह माना साहित्य जाता था कि वह जनता से जुड़ा है,उसकी चित्तावृत्ति का प्रतिबिम्ब है,साहित्य समाज का दर्पण है,इत्यादि।

द्विवेदीजी ने इन सब धारणाओं से आगे जाकर साहित्य की नयी धारणा दी ,साहित्य के नए सरोकार तय किए, मनुष्य,मानवतावाद और सामंजस्य ये तीन प्रधान तत्व है जो साहित्य की नयी धारणा की धुरी हैं। द्विवेदीजी के शब्दों में सारे मानव-समाज को सुन्दर बनाने की साधना का ही नाम साहित्य है। सौन्दर्य को ठीक से समझने से ही आदमी सौन्दर्य का प्रशंसक और स्रष्टा बन सकता है। साहित्य का काम पहले मनोरंजन देना था,प्रतिबिम्बन करना था, किंतु नयी भूमिका आदमी बनाने की है। मनुष्य तब ही मनुष्य बनता है जब वह पाशविक वृत्तियों से अपने को मुक्त कर ले। द्विवेदीजी ने मनुष्य को व्यक्ति के रूप में सम्बोधित करने की बजाय 'मनुष्य जाति' के रुप में सम्बोधित किया। द्विवेदीजी ने लिखा बड़ी चीज वह है,जो मनुष्य को आहार-निद्रा आदि पशु-सामान्य मनोवृत्तियों से ऊपर उठाती है,जो उसे देवता बनाती है।साहित्य का कार्य यही है। इसी प्रसंग में एक और महत्वपूर्ण तथ्य की ओर द्विवेदी जी ने ध्यान खींचा है,लिखा है जो कुछ घटता है वह सत्य ही नहीं होता-सभी तथ्य सत्य नहीं होते।

साहित्य की नयी परिभाषा बनाते समय यह बात द्विवेदीजी के पहले किसी के दिमाग में नहीं आयी कि साहित्य को अपने पाठकवर्ग का भी निर्माण करना होता है। साहित्य की उनकी परिभाषा असल में पाठक केन्द्रित है। अभी तक कृति केन्द्रित अथवा लेखक केन्द्रित या अमूर्त रूप में समाज केन्द्रित परिभाषा का प्रचलन था। पहलीबार आलोचना में पाठक केन्द्रित परिभाषा और पाठक के निर्माण की जरूरत के अहसास को किसी आलोचक ने सामने रखा।

द्विवेदीजी ने लिखा आज की सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि अच्छी बात कैसे कही जाय; बल्कि अच्छी बात को सुनने और मानने के लिए मनुष्य को कैसे तैयार किया जाय। द्विवेदीजी प्रतिक्रियावादियों की तरह हिन्दीवादी नहीं थे,वे हिन्दी के उत्थान के नाम पर साधारण जनता को हिन्दी-हिन्दी का राग अलापने और उत्तोजित करने के पूरी तरह खिलाफ थे। हिन्दी की सेवा के नाम पर होने वाली धंधेखोरी और भावुकता से उन्हें सख्त नफरत थी। हिन्दीवादी तत्वों को ध्यान में रखकर द्विवेदीजी ने लिखा हम लोग जब हिन्दी 'सेवा' की बात सोचते हैं तो प्राय: भूल जाते हैं कि यह लाक्षणिक प्रयोग है।हिन्दी की सेवा का अर्थ है उस मानव- समाज की सेवा,जिसके विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम हिन्दी है।मनुष्य ही बड़ी चीज है ,भाषा उसी की सेवा के लिए है।

इसी प्रसंग में एक अन्य महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान खींचा, लिखा, जब कभी आप किसी विकट प्रश्न के समाधान का प्रयत्न कर रहे हों तो इन्हें सीधे देखें।अमरीका में या जापान में ये समस्याएँ कैसे हल हुई हैं, यह कम सोचें;किन्तु असल में ये हैं क्या और किस या किन कारणों से ये ऐसे हो गए हैं,इसी को अधिक सोचें। हिन्दी की उन्नति का अर्थ उसके बोलने और समझने वालों की उन्नति है।

हिन्दी के लेखकों,आलोचकों और प्राध्यापकों में एक सामान्य बीमारी है कि वे हिन्दी साहित्य,हिन्दी भाषा का ही अहर्निश राग अलापते रहते हैं। वे अन्य चीजों से बेखबर रहते हैं,साहित्य के नाम पर परंपरागत विधाओं का ही जाप करते रहते हैं। ज्ञान-राशि के नाम पर इसकी ही व्याख्या में लगे रहते हैं।हमारे समाज में साहित्य साधना का यह रुप काफी पुराना है,हम अभी तक साहित्य साधना की पुरानी रूढ़ि से अपने को मुक्त नहीं कर पाए हैं।नए किस्म की साधना के लिए इससे मुक्ति जरूरी है। द्विवेदीजी ने इस तरह की समस्या को ही ध्यान में रखकर लिखा था, आज साहित्य को कल्पना-विलास की सामग्री समझना खतरनाक है।नवीन साहित्यकारों को ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों में रस-संग्रह की आवश्यकता है।ज्ञान-विज्ञान -जो देश और काल में व्याप्त है। कबीरदास ने ऐसे ही साधक को शूर कहा था जो आठों पहर मस्त बना रहता है और अतीत और वर्तमान में संचित होनेवाली ज्ञान-राशि का सार ग्रहण करता है,उसे सहज बनाकर दुनिया को देता है। जो ऐसा नहीं कर सकता उसकी साधना अधूरी है।नवयुग के साहित्यकारों को इस तत्व को बराबर स्मरण रखना चाहिए। हिन्दी के प्राध्यपकों में प्रतिस्पर्धात्मक प्रतियोगिताओं और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के शार्टकट के रुप में 'नोटस' और 'कुंजी की प्रथा चल निकली है। द्विवेदीजी ने लिखा नोटों और कुंजियों को उत्पन्न करनेवाली मनोवृत्ति का निर्दयतापूर्वक दमन कर देना चाहिए।

साहित्य,सम्प्रेषण तकनीक और जनतंत्र- साहित्य को समाज के साथ देखना,समाज की देन मानना,पुराना नजरिया है।हमारे आलोचक लंबे समय तक इस नजरिए के शिकार रहे हैं। साहित्य के नए नजरिए का संबंध सम्प्रेषण तकनीक से है। साहित्य कैसा है ? साहित्य की मुख्य समस्याएं क्या हैं ? साहित्य का प्रयोजन क्या है ? साहित्य की भूमिका क्या है ? साहित्यकार का प्रयोजन क्या है ?इन सारे सवालों के जबाव इस समझ पर टिके हैं कि समाज में सम्प्रेषण के साधन किस तरह के हैं। साहित्य की नयी धारणा का संबंध सम्प्रेषण तकनीक के नए रूपों के साथ गहरा संबंध है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में हजारीप्रसाद द्विवेदी पहले इतिहासकार हैं जो साहित्य के नए उभार को कम्युनिकेशन की तकनीक के साथ जोड़कर देखते हैं। आधुनिक काल में गद्य- युग के आरंभ में आधुनिकता के आगमन को उन्होंने प्रेस के आगमन से जोड़ा,उन्होंने लिखा वस्तुत: साहित्य में आधुनिकता का वाहन प्रेस है और उसके प्रचार के सहायक हैं:यातायात के समुन्नत साधन। पुराने साहित्य और नए साहित्य का प्रधान अंतर यह है कि पुराने साहित्यकार की पुस्तकें प्रचारित होने का अवसर कम पाती थीं।राजाओं की कृपा,विद्वानों की गुणग्राहिता,विद्यार्थियों के अध्ययन में उपयोगिता आदि अनेक बातें उनके प्रचार की सफलता का निर्धारण्ा करती थीं।प्रेस हो जाने के बाद पुस्तकों के प्रचारित होने का काम सहज हो गया,और फिर प्रेस के पहले गद्य की बहुत उपयोगिता नहीं थी।प्रेस हो जाने के बाद उसकी उपयोगिता बढ़ गई और विविध विषयों की जानकारी देने वाली पुस्तकें प्रकाशित होने लगीं।वस्‍तुत: प्रेस ने साहि‍त्‍य को जनतांत्रि‍क रूप दि‍या।


प्रेस के आगमन के पहले साहित्य में जनतंत्र नहीं था। आधुनिक काल के पहले साहित्य में जनतंत्र नहीं था,समाज में जनतंत्र नहीं था। प्रेस साहित्य में जनतंत्र की प्रतिष्ठा करता है।साहित्य को जनतांत्रिक बनाता है। इसके अलावा साहित्य को यदि प्रेस ने जनतांत्रिक बनाया है तो साहित्य के कालान्तर में विकसित रूपों के विकास में फिल्म, रेडियो, टीवी,इंटरनेट आदि का भी गहरा संबंध रहा होगा,इस पक्ष की कायदे से खोज की जानी चाहिए, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि संचार की आधुनिक तकनीक जनतांत्रिक प्रक्रिया को शक्ति देती है,जनतांत्रिक प्रक्रियाओं,जनतांत्रिक शक्तियों और जनतांत्रिक संस्थाओं को मजबूती प्रदान करती है। इसके अलावा हजारीप्रसाद द्विवेदी पहले आलोचक हैं जो संचार और परिवहन के नए रूपों और तकनीक को तटस्थ और समानतावादी भूमिका के रूप में नहीं देखते।द्विवेदीजी ने आगे लिखा है रेल तो सन् सत्तावन के विद्रोह का प्रमुख कारण थी और तार उस विद्रोह को दबाने का सफल अस्त्र साबित हुआ। इन साधारण सी दिखने वाली पंक्तियों में आधुनिक तकनीक का समग्र रहस्य छिपा है। आधुनिक तकनीक के रूप न तो तटस्थ होते हैं और न विचारधारा रहित होते हैं बल्कि वर्चस्व स्थापित करने के साधन हैं।शोषण के साधन हैं।साम्राज्यवादी वर्चस्व के साधन हैं। द्विवेदीजी ने रेल को बगावत का स्रोत बताया है, साथ ही तार को विद्रोह को दबाने का प्रधान अस्त्र बताया है। निष्कर्ष यह कि भारत में संचार और परिवहन के रूपों ने वर्चस्व का विकास किया।

एक अन्य संदर्भ में द्विवेदीजी ने लिखा अब मशीनों के उत्पात ने दुनिया बदल दी है। ... छापे की कल ने कविता के व्यापक क्षेत्र को कई हिस्सों में बांट दिया है।कहानियों ने बहुत हिस्सा पाया है।उपन्यासों ने बहुत -कुछ हथिया लिया है। निबन्धों ने भी कम नहीं पाया है। समाचार-पत्रों ने - और विशेष रूप से मासिक पत्रों ने- कवि सम्मेलनों की कमर तोड़ दी है।कविता कान का विषय न होकर ऑंख का विषय हो गयी है।सुनना अब उतना महत्व नहीं रखता, पढ़ना अधिक महत्वपूर्ण हो गया है और इन्द्रिय-परिवर्तन के साथ -ही साथ कविता के आस्वाद्य वस्तु में भी परिवर्तन हुआ है। ... छापे की कल ने हमें भावावेश पर से धकियाकर बुध्दि-प्रवाह में फेंक दिया है। यह भी लिखा जब तक दुनिया में छापे की मशीन नहीं थी तब तक मुक्त -छन्द भी नहीं थे।... समस्त संसार में मुक्त छन्द के प्रसार का कारण मशीनें हैं। प्रेस ने हमारी स्मृति को चिरस्थायी बनाया है। 'स्मृति' को नए आयाम दिए हैं। प्रेस के आने साथ ही 'पुस्तक' का जन्म होता है। 'पुस्तक' एक नया मीडियम है,इसके पहले हम पोथी के युग में थे,नयी तकनीक के आने के बाद इधर के वर्षों में लोग पुस्तक के लोप के बारे में चर्चाएं कर रहे हैं। संक्षेप में यही कह सकते हैं कि नयी संचार तकनीक का पुस्तक से बैर नहीं है।नए कम्युनिकेशन के माध्यम पुराने माध्यमों को अप्रासंगिक नहीं बनाते,बल्कि उनकी गतिविधियां बढ़ा देते हैं।

साहित्य में जनतंत्र - हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना था कि साहित्य की प्रकृति परिवर्तनीय है। वे शाश्वत साहित्य की धारणा स्वीकार नहीं करते थे,उनका मानना था कि आजकल साहित्य केवल सहृदयों की आलोचना और रसास्वादन की वस्तु नहीं रह गया है। छापे की मशीनों ने इसमें भी जनतांन्त्रिक गन्ध पैदा कर दी है। साहित्य के जनतांत्रिकीकरण की प्रक्रिया के कारण आलोचना और रचना में पश्चिमी साहित्य सिध्दान्तों का प्रयोग तेजी से बढ़ा और कहीं-कहीं तो विचारों की नकल करने की हद तक चले गए। पश्चिमी साहित्य सिध्दान्तों की नकल करने वालों को द्विवेदीजी ने पंख खोंसकर बने हुए मोरों की संज्ञा दी। ये वे साहित्यिक हैं जो पश्चिम के विचारों को अभी तक पचा नहीं पाए हैं।द्विवेदीजी के शब्दों में अधिकतर उन्हीं लोगों ने विशिष्ट स्थानों पर अधिकार कर रखा है। द्विवेदीजी का यह भी मानना था कि साहित्य का दलीय अथवा लालच या स्वार्थ के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।यह ऐसा दौर है जिसमें दलगत स्वार्थ के प्रेत ने समूची मनुष्यता को दबोच लिया है। ऐसे समय में हमें ऐसे साहित्य की आवश्यकता है जो हमारे हृदय को संवेदनशील और उदार बनाए। इस दौर की विशेषता है कि इसने 'भय' ,'सन्देह','अविश्वास' आदि ने विचारशील लोगों के मन पर कब्जा जमा लिया है। ऐसी अवस्था में मनुष्य को अज्ञान,मोह,कुसंस्कार और परमुखापेक्षिता से बचाना ही साहित्य का वास्तविक लक्ष्य है।इससे छोटे लक्ष्य की पहचान मुझे अच्छी नहीं लगती। छापे मशीन ने साहित्य की धारणा बदली, प्रयोजन बदला,सरोकार बदले,लेखक और पाठक के मनोभाव बदले,साहित्य का छंद भी बदला और काव्यभाषा को भी बदला। इसी क्रम में द्विवेदीजी ने लिखा साहित्य की नयी मान्यताएँ जीवन की नयी मान्यताओं से विच्छिन्न नहीं हैं। जनतंत्र की धुरी है मनुष्य और उस पर आस्था।मनुष्य पर आस्था ऐसे समय में बनी रही है जबकि प्रत्येक विचार,वस्तु,मूल्य आदि पर अविश्वास किया जा रहा है,संदेह व्यक्त किया जा रहा है। जब सब कुछ अविश्वास के घेरे में हो तब मनुष्य पर विश्वास कायम रखकर ही सफलता हासिल की जा सकती है। नए परिवर्तनों और विकास की कुंजी है मनुष्य पर विश्वास। सामान्य तौर पर हजारीप्रसाद द्विवेदी के बारे में यह माना जाता है कि वह मानवतावाद के पक्षधर थे। यह काफी गोलमोल धारणा है। इसका मेनीपुलेशन भी खूब हो रहा है। द्विवेदीजी ने व्यक्ति मनुष्य की बजाय समष्टि मनुष्य की मुक्ति की कामना की है।वह मानवतावाद की नहीं सामाजिक मानवतावाद की हिमायत करते हैं। जिस तरह साहित्य में सामंजस्य का महत्व है,उसी तरह आलोचना में संतुलन का महत्व है। द्विवेदीजी के शब्दों में सन्तुलित दृष्टि सत्यान्वेषी की दृष्टि है।एक ओर जहाँ वह सत्य की समग्र मूर्त्ति देखने का प्रयास करती है,वहीं दूसरी ओर वह सदा अपने को सुधारने और शुध्द करते रहने को प्रस्तुत रहती है। वह सभी प्रकार के दुराग्रह और पूर्वाग्रह से मुक्त रहने की और सब तरह के सही विचारों को ग्रहण करने की दृष्टि है।'