"तुलसीदास के दोहे / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
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+ | राज करत रज मिली गए सकल सकुल कुरुराज!! | ||
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+ | राम दूरि माया बढ़ती , घटती जानि मन मांह ! | ||
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+ | भूरी होती रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छांह !! |
03:39, 7 फ़रवरी 2008 का अवतरण
लेखक: तुलसीदास
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तुलसी अपने राम को, भजन करौ निरसंक
आदि अन्त निरबाहिवो जैसे नौ को अंक ।।
आवत ही हर्षे नही नैनन नही सनेह!
तुलसी तहां न जाइए कंचन बरसे मेह!!
तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहु ओर
बसीकरण एक मंत्र है परिहरु बचन कठोर
बिना तेज के पुरूष अवशी अवज्ञा होय
आगि बुझे ज्यों रख की आप छुवे सब कोय
तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक
साहस सुकृति सुसत्याव्रत राम भरोसे एक
काम क्रोध मद लोभ की जो लौ मन मैं खान
तौ लौ पंडित मूरखों तुलसी एक समान
राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार
तुलसी भीतर बहारों जौ चाह्सी उजियार
नाम राम को अंक है , सब साधन है सून!
अंक गए कछु हाथ नही, अंक रहे दस गून!!
प्रभु तरु पर, कपि डार पर ते, आपु समान!
तुलसी कहूँ न राम से, साहिब सील निदान!!
हरे चरहिं, तापाहं बरे, फरें पसारही हाथ!
तुलसी स्वारथ मीत सब परमारथ रघुनाथ!!
तुलसी हरि अपमान तें होई अकाज समाज!
राज करत रज मिली गए सकल सकुल कुरुराज!!
राम दूरि माया बढ़ती , घटती जानि मन मांह !
भूरी होती रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छांह !!