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लेखक: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=बहादुर शाह ज़फ़र]][[Category:कविताएँ]]|संग्रह=}}[[Category:गज़लग़ज़ल]][[Category:बहादुर शाह ज़फ़र]]<poem>पसे-मर्ग मेरी मजार पर जो दिया किसी ने जला दिया ।उसे आह! दामन-ए-बाद ने सरेशाम ही से बुझा दिया ।।
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* पसे-मर्ग मेरे मजार पर जो दिया किसी ने जला दिया । उसे आह! दामने-बाद ने सरेशाम ही से बुझा दिया ।। मुझे दफ़्न करना तू जिस घड़ी, तो ये उससे कहना कि ए ऐ परी, वो जो तेरा आशिक़ेआशिक़-ए-जार था, तहे तह-ए-ख़ाक उसको दबा दिया । दमे-ग़ुस्ल से मेरे पेशतर उसे हमदमों ने ये सोचकर,
दम-ए-ग़ुस्ल से मेरे पेशतर उसे हमदमों ने ये सोचकर,
कहीं जावे उसका दिल दहल, मेरी लाश पर से हटा दिया ।
मेरी आँख झपकी थी एक पल, मेरे दिल ने चाहा कि उसके चल,
दिले दिल-ए-बेक़रार ने ओ मियाँ! वहीं चुटकी लेके जगा दिया ।
मैंने दिल दिया, मैंने जान दी, मगर आह तूने न क़द्र की,
किसी बात को जो कभी कहा, उसे चुटकियों से उड़ा दिया ।
</poem>
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