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समाधिस्थ / जगदीश चतुर्वेदी

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::नक़ली मुखौटों से मुक्ति पा सका था।
सुख भी उतना ही तकलीफ़देह है जितना दुख
सुख भी बहुत अकेला कर जाता है
::मानो दुख के समय
::किसी आत्मीय की सान्त्वना के अभाव में
::सिसकता हुआ एक रोगी कक्ष।
शान्ति के वृक्षों को तलाशते हुएकई संत शरीर और नदियों के पाट::दीमक और काई के शिकार हो गएपर शान्ति न मिलीकिसी प्रकृति वनखण्ड या वातावरण से::परांगमुख होकरशान्ति खड़ी उसका इन्तज़ार करती रहीएक अन्धेरी नदी के किनारेजहाँ कनेर के लाल फूलों पर कोयल कूक रही थीऔरचम्पा का लम्बा दरख़्तसिर पर गिरा रहा थागोल, चमकीले, श्वेत, चम्पई फूल।
</poem>
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