"एक इतिहास कथा का अंत / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर
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भूखे पेट वो खींचते रहे दिन का रथ | भूखे पेट वो खींचते रहे दिन का रथ |
21:52, 21 अगस्त 2009 का अवतरण
भूखे पेट वो खींचते रहे दिन का रथ
गुज़रती रही सदियों पर सदियां
बर्फ़ पर जैसे जम जाती है काँच
पर्त-दर-पर्त
और बर्फ़ के नीचे वृह्द जल में
हज़ारों वर्ष तक प्रजनातुर रहती हइ मछलियाँ
बिना किसी प्रतिवाद के
बच्चा जैसे स्वप्न में
सहता रहता है
अन्याय का अकारण दबाव
थी वह बस्ती या
जंगल घनघोर
हाथी की मानिंद जहां
चिंघाड़ती रही हवाएं
आँखों में बन्द
प्रार्थनाओं-सी गिलहरियाँ
जैसे गिरने को हो कोई जर्जर वृक्ष
लेकिन गिरे भी नहीं
आदमख़ोर वृक्ष की जड़ें
फोड़ा है कई पंजों वाला
जिसकी असहनीय पीड़ा
वो सहते रहे भूख़े पेट
सदियों बहती रहीं जंगली नदियों की तरह
और ग़र्क होती रही रेगिस्तान में
मरीचिका की तरह
नदियाँ थीं उनकी
उनके रक्त व पसीने से सराबोर
उनके प्राणों के बहाव से गतिमय
कड़कती दोपहरों में वो खुलेआम
बनाते रहे गगनचुम्बी पिरामिड
ढोते रहे शिलाएं
तुतंख़मनों की भयावह शव-यात्राएं
आकाश रहे खामोश
क्षितिज भागते रहे दूर-दूर
पिंजर सहते रहे मुर्दाघरों का
असहनीय बोझ
ममताहीन दोपहरों में राजपथों पर
खाते रहे आग
सहते रहे कीड़ों की मार
नचाए जाते रहे खुले मंचों पर
कठपुतलियों की तरह
खोपड़ियों में उबलता रहा
प्रतिशोध का काला रक्त
दृष्टियाँ बन गयीं अघटनीय भवितव्य की
अपस्मार प्रतीक्षा
भूख़ और शोषण का
न सामाप्त होने वाला मृत्युगीत
गाता हुआ वह हुजूम
गुज़रता रहा
एक नमुराद अंधी सुरंग से
सुनता रहा ज़िन्दगी के नाम पर
अंधेरे में
असंख्य चमगादड़ों का
पर फड़फड़ाना
क्योंकि सूरज,हवा और दर्पण
नहीं थे उनके लिये
ताकि ज़हन से जुड़ी हुई दृष्टि
न खोज सके अपनी राह
न पा सके अपनी खोयी हुई पहचान के निशान
चलाते रहें जहाज़ के तहख़ानों में वे
भारी भारी चप्पु
अपनी-अपनी कच्छर पीठ पर
वहन करते रहें
खूनी सभ्यताओं का बोझ
लेकिन गुज़रता गया वक़्त
समाप्त होती गयी सुरंग