भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अल्हड़ चीड़ / सरोज परमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह= घर सुख और आदमी / सरोज परमार }} [[C...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
03:26, 22 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
सर्द खामोशी में
दीवाना हुआ जाता रे
अल्हड़ चीड़ ।
छुअन ज़रा सी हवा की
लगा झूम-झूम मचलने
सज बन तुहिन चकतों से
लगा कँपने सिहरने
झिरी से कसमसाने लगा रे
अल्हड़ चीड़।
बड़ा सहज है
झेल नहीं पाता उफान
आतंकित नहीं कर पाई
कोई भी ऊँचाई
छल नहीं पाया
किसी का बौनापन।
कितना खुलापन रे
अल्हड़ चीड़ !
छनी छनी सी धूप
फिसली गिरती सी छाया
गुंजित पल पल अनहदनाद
अर्हनिश जंगल भरमाया
कब यह जोग धराया ने ?
अल्हड़ चीड़ ।
बदली तेरा माथा चूमें
हिममुक्ता केश संवारे
चिलगोज़ों के कलश उठाए
मिलनातुर तू बाँह पसारे ।
भव्य बने तेरे नखरे रे
अल्हड़ चीड़ ।