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"बहरी भीड़ / केशव" के अवतरणों में अंतर

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14:28, 22 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

आओ, आओ
मैं तुम्हारे गीत
तुम्हें सुनाता हूँ
बात तुम्हारी
तुम्हारी ही भाषा में
फुसफुसाता हूँ तुम्हारे कान में
इकट्ठे होकर मेरे गिर्द
एक बहुत बड़े काने से
सुनते हो
तालियाँ बजाकर
गिनते हो
इस तरह निकलते हो
अपने बिल से
काले झंडे लेकर
और फिर उतने ही पत्थर
गिनकर
फैंकते हो मुझपर
अपनी चूहेदानियों से
या ईश्वर के कंधों पर बैठकर

मेरे लिए यह नहीं कोई नई बात
बार-बार अपना फन उठा
खुद को डसते हो
क्योंकि तुम अपने से अलग हो
खुद को खाली हाथों से भरते हुए
मैं गुज़रता रहता हूँ
सुरंगों से
चढ़ता रहता हूँ
पहाड़
पर तुम घर की छत पर ही
चाभी भरे कछुए की तरह
चलते रहते हो
अपनी ही आवाज़ को
न पहचानते हुए