भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दफ्तर से लौटते हुए / केशव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=अलगाव / केशव }} {{KKCatKavita}} <poem>उसे झट से अंत...)
 
(कोई अंतर नहीं)

15:28, 22 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

उसे झट से अंतिम बार चूमकर
खाली कर दिया मुझे

मुझे सुनाई दे रही थी
द्वार के करीब होती
पदचाप
कोई दहलीज़ के उस पार
ठिठका
हल्के नीले पर्दे पर
एक मुट्ठी किंचित झुकी
खुली
और गहरे नीले उजास में सरकते
पीले साँप के समान
रेंगीं उंगलियाँ
मैं एक झटके से
कंधे पर कोट टाँग
पिछले दरवाज़े से
निकल आया बाहर

आसमान पहले ही की तरह
लटका था ऊबड़-खाबड़
जैसे बकरे का कटा हुआ सर
किसी आवारा औरत की तरह
गली करने लगी थी
चहलकदमी
हाथों में जामुनी रंग के फूल लिये लोग
जिनकी तंग सुरंग-सी आँखें
उलीचने को थीं तैयार
दिन भर की नसों में दौड़ती
ऊब
बाँस की झिड़कियाँ
और सावधान कोशिश से बचाया
अपना एक अंश
उनके चेहरे पर बैठा साँप
धीरे-धीरे खोल रहा था

अपनी गंजलक
आपस में टकराते हुए
पतझर की हवा में टकराते
पत्तों की मानिंद
आ-जा रहे थे
डालते हुए एक दूसरे पर
चोर दृष्टियाँ
शब्द तैर रहे थे लापरवाह
गली में फैल रहे उस
बैंगनी अंधेरे में

पहुँचना चाहते थे सभी
एक कतार में जलती-बुझती
उन खिड़कियों के अन्दर
पहुँचकर
लौटना चाहते थे फौरन
खाली चैम्बर लिये

मेरे शरीर को नहीं मिल सकता था
चारों ओर जंगल-सी फैली
उस भीड में
क्योंकि कहीं भी नहीं थे
ज़िन्दगी के चिन्ह
मैं अकेला छूट गया था जैसे
बस स्टाप पर अंतिम बस
मुझे नहीं पहुँचना था कहीं भी

खुले में आकर
भरपूर कश खींच
उगल देता हूँ घुएं का अम्बार
अचानक एक ख्याल
मेरे दिमाग में
जुगनू की तरह जलकर बुझ जाता है:
कहाँ होगा इस सिलसिरे का अन्त
जो कहीं से नहीं होता शुरू