भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"चक्रव्यूह / केशव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=अलगाव / केशव }} {{KKCatKavita}} <poem>मेरे भीतर व्य...)
 
(कोई अंतर नहीं)

15:39, 22 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

मेरे भीतर व्याप्त
जंगल का यह सन्नाटा
जड़ तो नहीं

लेकिन इसकी धड़कनों को
पकड़ने के लिये फैंका हुआ
शब्दों का जाल
हर बार खाली ही सिमट आता है

कुहरा होता जाता है घना
और डूबने के प्रति सजग रहते हुए भी
निरंतर डूबता जाता हूँ मैं

जिस दिशा में भी मुड़ते हैं पाँव
हर चीज़ मिलती है
एक दोधारी तलवार की तरह पड़ी हुई
और हर रास्ता मरीज़ की
निस्तेज आँखों की तरह
मेरे बढ़े हुए हाथ हमेशा की तरह
बर्फ़ की सिल्लियों को छूकर
लौट आते हैं

अपनी आँखों के नीचे
स्याह गढों को टटोलकर मैं
आईने को तोड़ने का
असफ़ल प्रयास करता हूँ
लेकिन इस कोशिश में
मेरे अपने ही चेहरे की रोशनी
हो जाती है

ट्कड़े-टुकड़े

इस सबके बावजूद भी मेरे भीतर
जो हो रहा है उसे पकड़ने के लिए
उतरता है फिर
उसी गूँगी दुनियाँ में
जो ला पटकती है मुझे
हर बार
एक भुरभुरी चट्टान पर

अपनी इस लड़ाई में
शरीक करना चाहा जिसे
वह शायद पहले ही से
गंवा बैठा था खुद को
उस गूँगी दुनियाँ
और उसका दिमाग
लड़खड़ा रहा था
चकाचौंध में
अनिश्चय की लीक पकड़े वह
देखता रहा
मेरे साथ अंधेरा पार करने का स्वप्न
जब तक आभास हुआ मुझे इसका
कर चुका था उसके साथ मैं
ल लौट सकने की सीमा तक
सफ़र
प्रश्नों की गीली मशाल सुलगाने
खुद को आग में झोंक देने के बाद भी
धुएँ की लकीरें ही फैली
चारों ओर

जानता हूँ
लड़ाई यह ख़त्म नहीं होती कभी
लेकिन कुछ पाने के लिए
पागलपन की हद तक जाकर भी
अधिक से अधिक
हासिल होती है
परछाईयाँ

क्या इतने भर के लिए ही
जारी रहेगी यह अंधी दौड़
और नियति के नाम पर होती रहेगी
बार बार इस चक्रव्यूह की रचना
खुद को क़त्ल कर देने के लिए
आखिरकार