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"कोई आये / केशव" के अवतरणों में अंतर
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प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=अलगाव / केशव }} {{KKCatKavita}} <poem>कभी-कभी बहुत ...) |
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16:39, 22 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
कभी-कभी बहुत लगता है
कोई कहीं से आये
चुपके से
अधरों पर अधर
माथे पर उंगलियाँ
और वक्ष पर हथेलियाँ
धर जाये
ज्यों सुबह उठने से पहले
सिरहाने कोई
ताज़े फूल रख जाये
बाहों की नदी कोई घेरे मुझे
ले जाये तिनके-सा बहा
खिड़की पर बोले चिड़िया
द्वार पर दे दस्तक हवा
कोई टुकड़ा धूप
नन्हें पैरों से चल
आ दुबके गोद में
उस वक्त न कुछ सोचूँ
न कहूँ
स्पर्शों को पीता रहूँ
बूँद-बूद
लीन उनकी अछूती
अपनी सी गरमाई में
घनी अमराई में
बस जीता रहूँ