भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सूरज डूब गया बल्ली भर / नरेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा }} <poem> सूरज डूब गया बल्ली भर- सागर ...)
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा   
 
|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा   
 
}} <poem>
 
}} <poem>
सूरज डूब गया बल्ली भर-
+
::सूरज डूब गया बल्ली भर-
सागर के अथाह जल में।
+
::सागर के अथाह जल में।
एक बाँस भर उठ आया है-
+
::एक बाँस भर उठ आया है-
चाँद, ताड के जंगल में।
+
::चांद, ताड के जंगल में।
अगणित उँगली खोल, ताड के पत्र, चाँदनी में डोले,
+
अगणित उंगली खोल, ताड के पत्र, चांदनी में डोले,
 
ऐसा लगा, ताड का जंगल सोया रजत-छत्र खोले
 
ऐसा लगा, ताड का जंगल सोया रजत-छत्र खोले
कौन कहे, मन कहाँ-कहाँ
+
::कौन कहे, मन कहाँ-कहाँ
हो आया, आज एक पल में।
+
::हो आया, आज एक पल में।
 
बनता मन का मुकुर इंदु, जो मौन गगन में ही रहता,
 
बनता मन का मुकुर इंदु, जो मौन गगन में ही रहता,
 
बनता मन का मुकुर सिंधु, जो गरज-गरज कर कुछ कहता,
 
बनता मन का मुकुर सिंधु, जो गरज-गरज कर कुछ कहता,
शशि बनकर मन चढा गगन पर,
+
::शशि बनकर मन चढा गगन पर,
रवि बन छिपा सिंधु तल में।
+
::रवि बन छिपा सिंधु तल में।
परिक्रमा कर रहा किसी की, मन बन चाँद और सूरज,
+
परिक्रमा कर रहा किसी की, मन बन चांद और सूरज,
 
सिंधु किसी का हृदय-दोल है, देह किसी की है भू-रज
 
सिंधु किसी का हृदय-दोल है, देह किसी की है भू-रज
मन को खेल खिलाता कोई,
+
::मन को खेल खिलाता कोई,
निशि दिन के छाया-छल में।
+
::निशि दिन के छाया-छल में।
  
  
 
</poem>
 
</poem>

17:57, 22 अगस्त 2009 का अवतरण

सूरज डूब गया बल्ली भर-
सागर के अथाह जल में।
एक बाँस भर उठ आया है-
चांद, ताड के जंगल में।
अगणित उंगली खोल, ताड के पत्र, चांदनी में डोले,
ऐसा लगा, ताड का जंगल सोया रजत-छत्र खोले
कौन कहे, मन कहाँ-कहाँ
हो आया, आज एक पल में।
बनता मन का मुकुर इंदु, जो मौन गगन में ही रहता,
बनता मन का मुकुर सिंधु, जो गरज-गरज कर कुछ कहता,
शशि बनकर मन चढा गगन पर,
रवि बन छिपा सिंधु तल में।
परिक्रमा कर रहा किसी की, मन बन चांद और सूरज,
सिंधु किसी का हृदय-दोल है, देह किसी की है भू-रज
मन को खेल खिलाता कोई,
निशि दिन के छाया-छल में।