"एक ख़त इमरोज़ के नाम / हरकीरत हकीर" के अवतरणों में अंतर
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जलते अक्षरों को | जलते अक्षरों को | ||
बरसों सीने से चिपकाये हम | बरसों सीने से चिपकाये हम | ||
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शापमुक्त करती रहीं... | शापमुक्त करती रहीं... | ||
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आँखों में दर्द का कफ़न ओढे़ | आँखों में दर्द का कफ़न ओढे़ | ||
चुपचाप | चुपचाप | ||
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यह ख़त | यह ख़त | ||
उस पाक रूह से निकले अल्फाज़ हैं | उस पाक रूह से निकले अल्फाज़ हैं | ||
− | जो | + | जो मुहब्बत की खातिर |
बरसों आग में तपी थी | बरसों आग में तपी थी | ||
आज तेरे इन लफ्जों के स्पर्श से | आज तेरे इन लफ्जों के स्पर्श से | ||
− | मैं | + | मैं रुई सी हल्की हो गई हूँ |
देख ,मैंने आसमां की ओर | देख ,मैंने आसमां की ओर | ||
बाँहें फैला दी हैं | बाँहें फैला दी हैं | ||
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''कवि, कलाकार 'हकी़र' नहीं होते, | ''कवि, कलाकार 'हकी़र' नहीं होते, | ||
तुम तो खुद एक दुनियाँ हो, | तुम तो खुद एक दुनियाँ हो, | ||
− | शमां भी हो और | + | शमां भी हो और रोशनी भी'' |
तुम्हारे इन शब्दों ने आज मुझे | तुम्हारे इन शब्दों ने आज मुझे | ||
अर्थ दे दिया है | अर्थ दे दिया है | ||
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आसमान पर | आसमान पर | ||
न लिख सकी | न लिख सकी | ||
− | कि | + | कि ज़िंदगी सुख भी है |
पर आज धरती के | पर आज धरती के | ||
एक क़ब्र जितने टुकडे़ पर तो | एक क़ब्र जितने टुकडे़ पर तो | ||
लिख ही लूंगी | लिख ही लूंगी | ||
− | कि | + | कि ज़िंदगी सुख भी थी |
हाँ इमरोज़! | हाँ इमरोज़! | ||
लो आज मैं कहती हूँ | लो आज मैं कहती हूँ | ||
− | + | ज़िंदगी सुख भी थी … | |
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10:37, 23 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
(२१ सितंबर २००८ मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण दिन था। आज मुझे इमरोज जी का नज़्म रुप में खत
मिला। उसी खत का जवाब मैंने उन्हें अपनी इस नज़्म में दिया है...)
इमरोज़
यह ख़त,ख़त नहीं है तेरा
मेरी बरसों की तपस्या का फल है
बरसों पहले इक दिन
तारों से गर्म राख़ झडी़ थी
उस दिन
इक आग अमृता के सीने में लगी
और इक मेरे
जलते अक्षरों को
बरसों सीने से चिपकाये हम
कोरे कागज़ की सतरों को
शापमुक्त करती रहीं...
शायद
यह कागज़ के टुकडे़ न होते
तो दुनियाँ के कितने ही किस्से
हवा में यूँ ही बह जाते
और औरत
आँखों में दर्द का कफ़न ओढे़
चुपचाप
अर्थियों में सजती रहती...
इमरोज़
यह ख़त, ख़त नहीं है तेरा
देख मेरी इन आँखों में
इन आँखों में
मौत से पहले का वह सकूं है
जिसे बीस वर्षो से तलाशती मैं
जिंदगी को
अपने ही कंधों पर ढोती आई हूँ...
यह ख़त
उस पाक रूह से निकले अल्फाज़ हैं
जो मुहब्बत की खातिर
बरसों आग में तपी थी
आज तेरे इन लफ्जों के स्पर्श से
मैं रुई सी हल्की हो गई हूँ
देख ,मैंने आसमां की ओर
बाँहें फैला दी हैं
मैं उड़ने लगी हूँ
और वह देख
मेरी खुशी में
बादल भी छलक पडे़ हैं
मैं
बरसात में भीगी
कली से फूल बन गई हूँ
जैसे बीस बरस बाद अमृता
एक पाक रूह के स्पर्श से
कली से फूल बन गई थी...
इमरोज़!
तुमने कहा है-
कवि, कलाकार 'हकी़र' नहीं होते,
तुम तो खुद एक दुनियाँ हो,
शमां भी हो और रोशनी भी
तुम्हारे इन शब्दों ने आज मुझे
अर्थ दे दिया है
भले ही मैं सारी उम्र
आसमान पर
न लिख सकी
कि ज़िंदगी सुख भी है
पर आज धरती के
एक क़ब्र जितने टुकडे़ पर तो
लिख ही लूंगी
कि ज़िंदगी सुख भी थी
हाँ इमरोज़!
लो आज मैं कहती हूँ
ज़िंदगी सुख भी थी …