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"कविता / हरकीरत हकीर" के अवतरणों में अंतर

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10:45, 23 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

हंसी की इक
फिजूल सी कोशिश में
कई बार मैं
उसके चेहरे को टटोलती
जालों को उतारने की
नाकाम कोशिश में
बादबन<ref>हवाओं के बन्‍धन</ref>खोलती
पर हवायें
और मुखालिफ़<ref>विरोधी</ref> हो जातीं
इर्द-गिर्द के घेरे
और कस जाते...

आँखें
एक लम्‍हे के लिए
आस की लौ में
चमक उठतीं
और दूसरे ही पल
तेज धूप की आंच लिए
बेमौसम की बरसात में
बोझल हो जातीं...

इक नक्‍़श उभरता
चेहरा टूटता
जख्‍़म हंसते
आसमां फिर एक
झूठी कहानी गढने लगता...

मैं...
पढने की कोशिश करती
मुझे यकीन था
वो लड़खडा़येगा
सख्‍़त चट्‌टानों से टकराकर
सच उसके चेहरे पर
छलक आयेगा...

मैं पूछती
तुम्‍हें याद है....
इक बार जब तुम गिर पडे़ थे...
ऊपरी सीढी़ से....?
उसने कहा...
नहीं..
मुझे कुछ याद नहीं..
मैं कभी नहीं गिरा..
मैं गिरना नहीं जानता
मैं निरंतर चलना जानता हूँ
आखिरी सीढी़ तक...

मैंने फिर कहा...
जानते हो यह तुम्‍हारे
चेहरे पर का जख्‍़म.....?
नहीं.......
मै किसी अतीत से नहीं बँधा
गिरना और चोट लगना
एक स्‍वभाविक क्रिया है
न वह अतीत है
न वर्तमान...
ज़िंदगी एक गहरी नदी है
मुझे इस पानी में उतरना है
मेरे लिए हवाओं का साथ
मायने नहीं रखता...

मैंने
फिर एक कोशिश की...
कहा...
कुछ बोझ मुझे दे दो
हम साथ-साथ चलेंगें तो
हवायें सिसकेंगी नहीं...!

हुँह...!
तुम्‍हारी यही तो त्रासदी है
ज़िंदगी भर
गिरने का रोना...
खोने का रोना...
पाने का रोना...
दर्द का रोना...
रोना और सिर्फ रोना...

मैंने देखा
उसके चेहरे के निशान
कुछ और गहरे हो गए थे
अब कमरे में घुटन साँसे लेने लगी थी
मुझे अजीब सी कोफ्‍त होने लगी
खिड़की अगर बंद हो तो
अंधेरे और सन्‍नाटे
और सिमट आते हैं
मैंने उठकर
बंद खिड़की खोल दी
सामने देखा...
धूप की हल्‍की सी किरण में
मकडी़ इक नया जाल
बुन रही थी....!!

शब्दार्थ
<references/>