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17:31, 28 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
मैं रात का वाचक हूँ
उसका एकमात्र नुमाईंदा
मैं उसका एकमात्र दोस्त
कौन हैं उसके माता-पिता?
हमारी सैंकड़ों जिज्ञासाओं में उसकी जगह नहीं दिखती
हमारी हँसी मं
तीज-त्यौहार में
सामुदायिक मेलों-ठेलों में
क्या कोई उसकी बात करता है
हमार रुदन में भी
वह एक परिपार्श्व की तरह होती है
प्रेम की भूखी लड़की की तरह
वह हर कहीं हताश नज़रें घुमाती है
सब कुछ,सब कोई दिन के पक्ष में है
ज़रूरत से ज़्यादा जिसे परोसा जाता है
ज़रुरत से ज़्यादा जिसे दुलारा जाता है
मैं रात का वाचक हूँ
दिन की अट्टालिकाओं के सामने खड़ा होकर मैं चिल्लाता हूँ- मैं रात का वाचक हूँ।