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17:45, 28 अगस्त 2009 का अवतरण

बर्तोल्त! पीछे पढ़ी तुम्हारी कविताएँ। जाना था कम कि तुम हो शानदार
कवि भी। अभी हिन्दी में तो बुरा हाल है। नाम तो खूब है तुम्हारा, पर सीखते नहीं
हैं तुमसे कुछ। घिसटते घिसटते चलते हैं हमारे कवि ओर अपने ढह जाने पर
मुग्ध हैं। यूँ वे भले लोग हैं पर वे नहीं जानते भलेपन से कितनी ऊब आती है
आजकल। शर्म सी आती है कि कितने कमज़ोर हो गए हैं कि भले हो गये हैं।
कितने थक गये हैं कि बुद्धिजीवी हो गये हैं। घर-बार के झंझट में इतना डूबे कि
उनका मार्मिकीकरण होकर रहा। यूँ वे यारबाश हैं पर यारों के समझाये समझते
नहीं। अब उन्हें कौन समझाए। उन्हें कौन बताए कि गम्भीर बातें छोड़ो और चाय
के खोखे पर चलो। ई0पी0डब्ल्यू0 नहीं पढ़ेंगे तो कहर नहीं टूट पड़ेगा। वे चाहें तो
तुम्हारी भी किताबें रख सकते हैं एक ओर। उनसे कहो कि वो बेहतर कविता
की चिंता ज़्यादा न करे और खोखे पर बैठें। यूँ हमारे कई बेहतर कवि तो
उधर नहीं जाते पर मुझे लगता है कि जोरों से तलाश की जाने वाली बेहतर कविता
वहाँ हो सकती है। ऐसा आभास मुझे वहाँ चाय पीते लोगों की बातचीत सुनकर
हुआ। मैं इतना बड़ा मार्किसस्ट तो नहीं कि कह दूँ कि बेहतर कविता लिखने के
लिए गरीबी ज़रूरी है पर इतना मेरा ख़्याल ज़रूर बन रहा है कि बेहतर कविता
खोखे पर ही होगी। जैसा पहले कहा ऐसा मुझे वहाँ चाय पीते लोगों की बातचीत
सुनकर लगा। तुम्हारी भाषा में तो खोखे को कुछ और कहते होंगे । अच्छा,अब
चलता हूँ। काफी अच्छी कविताएँ थीं तुम्हारी।