"एक शबे-ग़म वो भी थी जिसमें जी भर आये तो अश्क़ बहायें / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर
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हुस्न इक बे-बेंधा हुआ मोती या इक बे-सूँघा हुआ फूल | हुस्न इक बे-बेंधा हुआ मोती या इक बे-सूँघा हुआ फूल | ||
होश फ़रिस्तों के भी उड़ा दें तेरी ये दोशीज़ा२ अदायें। | होश फ़रिस्तों के भी उड़ा दें तेरी ये दोशीज़ा२ अदायें। | ||
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+ | बातें उसकी याद आती हैं लेकिन हम पर ये नहीं खुलता | ||
+ | किन बातों पर अश्क़ बहायें किन बातों से जी बहलायें। | ||
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+ | साक़ी अपना ग़मख़ना भी, मयख़ाना बन जाता है | ||
+ | मस्ते-मये-ग़म होकर जब हम, आँखों से सागर छलकायें। | ||
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+ | अहले-मसाफ़त३ एक रात का ये भी साथ ग़नीमत है | ||
+ | कूच करो तो सदा दे देना, हम न कहीं सोते रह जायें। | ||
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+ | होश में कैसे रह सकता हूँ आख़िर शायरे-फ़ितरत४ हूँ | ||
+ | सुब्ह के सतरंगे झुर्मुट से जब वो उँगलियाँ मुझे बुलायें। | ||
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+ | एक ग़ज़ाले-रमख़ुर्दा का मुँह फेरे ऐसे में गुज़रना | ||
+ | जब महकी हुई ठंडी हवाएँ दिन डूबे आँखें झपकायें। | ||
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+ | देंगे सुबूते-आलीज़र्फ़ी हम मयकश सरे-मयख़ाना | ||
+ | साक़ी-ए-चश्में-सियह की बातें, ज़गर भी हो तो हम पी जायें। | ||
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+ | मौजूँ करके सस्ते जज़्बे, मण्डी-मण्डी बेंच रहे हैं | ||
+ | हम भी ख़रीदें जो ये सुख़नवर इक दिन ऐसी ग़ज़ल कहलायें। | ||
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+ | राह चली है जोगन होकर, बाल सँवारे, लट छिटकाये | ||
+ | छिपे ’फ़िराक़’ गगन पर तारे, दीप बुझे हम भी सो जायें। | ||
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+ | शब्दार्थ | ||
+ | १- सृष्टि, २- कुँवारी, ३- यात्रा-साथी, ४- प्रकृति-कवि। |
23:43, 29 अगस्त 2009 का अवतरण
एक शबे-ग़म वो भी जिसमें जी भर आये तो अश्क़ बहायें
एक शबे-ग़म ये भी है जिसमें ऐ दिल रो-रो के सो जायें।
जाने वाला घर जायेगा काश, ये पहले सोचा होता
हम तो मुन्तज़िर इसके थे, बस कब मिलने की घड़ियाँ आयें।
अलग-अलग बहती रहती है हर इंसा की जीवनधारा
देख मिले कब आज के बिछड़े, ले लूँ बढ़के तेरी बलायें।
सुनते हैं कुछ रो लेने से, जी हल्का हो जाता है
शायद थोड़ी देर बरस कर छट जायँ कुछ ग़म की घटायें।
अपने दिल से ग़ाफ़िल रहना अहले-इश्क़ का काम नहीं
हुस्न भी है जिसकी परछाईं, आज वो मन की जोत जगायें।
सबको अपने-अपने दुख हैं सबको अपनी-अपनी पड़ी है
ऐ दिले-ग़मग़ीं तेरी कहानी कौन सुनेगा किसको सुनायें।
जिस्मे - नाज़नीं में सर-ता-पा नर्म लवें लहराई हुई-सी
तेरे आते ही बज़्मे-नाज़ में जैसे कई शमए जल जायें।
हाँ-हाँ तुझको देख रहा हूँ क्या जलवा है क्या परदा है
दिल दे नज़्ज़ारे की गवाही और ये आँखें क़स्में खायें।
लफ़्जों में चेहरे नज़र आयेंगे चश्मे-बीना की है शर्त
कई ज़ावियों से ख़िलक़त१ को शेर मेरे आईना दिखायें।
मुझको गुनाहो-सवाब से मतलब? लेकिन इश्क़ में अक्सर आये
वो लम्हें ख़ुद मेरी, हस्ती जैसे मुझे देती हो दुआएँ।
छोड़ वफ़ा-ओ-जफ़ा की बहसें, अपने को पहचान ऐ इश्क़!
ग़ौर से देख तो सब धोखा है, कैसी वफ़ाएँ कैसी जफ़ाएँ।
हुस्न इक बे-बेंधा हुआ मोती या इक बे-सूँघा हुआ फूल
होश फ़रिस्तों के भी उड़ा दें तेरी ये दोशीज़ा२ अदायें।
बातें उसकी याद आती हैं लेकिन हम पर ये नहीं खुलता
किन बातों पर अश्क़ बहायें किन बातों से जी बहलायें।
साक़ी अपना ग़मख़ना भी, मयख़ाना बन जाता है
मस्ते-मये-ग़म होकर जब हम, आँखों से सागर छलकायें।
अहले-मसाफ़त३ एक रात का ये भी साथ ग़नीमत है
कूच करो तो सदा दे देना, हम न कहीं सोते रह जायें।
होश में कैसे रह सकता हूँ आख़िर शायरे-फ़ितरत४ हूँ
सुब्ह के सतरंगे झुर्मुट से जब वो उँगलियाँ मुझे बुलायें।
एक ग़ज़ाले-रमख़ुर्दा का मुँह फेरे ऐसे में गुज़रना
जब महकी हुई ठंडी हवाएँ दिन डूबे आँखें झपकायें।
देंगे सुबूते-आलीज़र्फ़ी हम मयकश सरे-मयख़ाना
साक़ी-ए-चश्में-सियह की बातें, ज़गर भी हो तो हम पी जायें।
मौजूँ करके सस्ते जज़्बे, मण्डी-मण्डी बेंच रहे हैं
हम भी ख़रीदें जो ये सुख़नवर इक दिन ऐसी ग़ज़ल कहलायें।
राह चली है जोगन होकर, बाल सँवारे, लट छिटकाये
छिपे ’फ़िराक़’ गगन पर तारे, दीप बुझे हम भी सो जायें।
शब्दार्थ
१- सृष्टि, २- कुँवारी, ३- यात्रा-साथी, ४- प्रकृति-कवि।