भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रह गया सब कुछ / वीरेंद्र मिश्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
कवि: [[वीरेंद्र मिश्र]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:गीत]]
+
|रचनाकार=वीरेंद्र मिश्र
[[Category:वीरेंद्र मिश्र]]
+
}}
 
+
{{KKCatNavgeet}}
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
<poem>
 
+
 
रह गया सब कुछ बिखर कर
 
रह गया सब कुछ बिखर कर
 
 
इन दिनों है दुख शिखर पर
 
इन दिनों है दुख शिखर पर
 
  
 
एक पल में हो गया सब कुछ अधूरा
 
एक पल में हो गया सब कुछ अधूरा
 
 
कुछ हुआ ऐसा कि टूटा तानपूरा
 
कुछ हुआ ऐसा कि टूटा तानपूरा
 
+
शब्द का संगीत चुप है काँपता हर गीत थर-थर
शब्द का संगीत चुप है कांपता हर गीत थर-थर
+
 
+
  
 
और ऊपर उठ रही है तेज़ धारा
 
और ऊपर उठ रही है तेज़ धारा
 
 
यह किसी रूठी नदी का है इशारा
 
यह किसी रूठी नदी का है इशारा
 
 
द्वीप जैसा हो गया है बाढ़ में घिरता हुआ घर
 
द्वीप जैसा हो गया है बाढ़ में घिरता हुआ घर
 
  
 
देखने में नहीं लगता साधुओं सा
 
देखने में नहीं लगता साधुओं सा
 
+
दुख शलाका पुरुष-सा है आँसुओं का
दुख शलाका पुरुष-सा है आंसुओं का
+
रहा आँखों में बहुत दिन आज है लंबे सफ़र पर।
 
+
</poem>
रहा आंखों में बहुत दिन आज है लंबे सफ़र पर।
+

10:51, 31 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

रह गया सब कुछ बिखर कर
इन दिनों है दुख शिखर पर

एक पल में हो गया सब कुछ अधूरा
कुछ हुआ ऐसा कि टूटा तानपूरा
शब्द का संगीत चुप है काँपता हर गीत थर-थर

और ऊपर उठ रही है तेज़ धारा
यह किसी रूठी नदी का है इशारा
द्वीप जैसा हो गया है बाढ़ में घिरता हुआ घर

देखने में नहीं लगता साधुओं सा
दुख शलाका पुरुष-सा है आँसुओं का
रहा आँखों में बहुत दिन आज है लंबे सफ़र पर।