भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आंगन हम / वीरेंद्र मिश्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: फूल गिराते होंगे, हिला स्वप्न डाली होगे तुम ग्रह-ग्रह के रत्न, अंश...)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
+
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=वीरेंद्र मिश्र
 +
}}
 +
{{KKCatNavgeet}}
 +
<poem>
 
फूल गिराते होंगे, हिला स्वप्न डाली
 
फूल गिराते होंगे, हिला स्वप्न डाली
 
होगे तुम ग्रह-ग्रह के रत्न, अंशुमाली  
 
होगे तुम ग्रह-ग्रह के रत्न, अंशुमाली  
    आंगन हैं हम कि जहां रोशनी नहीं है
+
::आंगन हैं हम कि जहाँ रोशनी नहीं है
  
 
रासों की रात ओढ़ पीताम्बर चीवर
 
रासों की रात ओढ़ पीताम्बर चीवर
 
होगे तुम  शब्दों के मीठे वंशीधर
 
होगे तुम  शब्दों के मीठे वंशीधर
      मिट्टी ने, पर, वंशी-धुन सुनी नहीं है  
+
::मिट्टी ने, पर, वंशी-धुन सुनी नहीं है  
  
 
ओ रे ओ अभिमानी गीत, महलवाले!  
 
ओ रे ओ अभिमानी गीत, महलवाले!  
 
होगे तुम उत्सव  की चहल-पहलवाले
 
होगे तुम उत्सव  की चहल-पहलवाले
    दीवाली गलियों  में तो  मनी नहीं है  
+
::दीवाली गलियों  में तो  मनी नहीं है  
  
 
तुम जिन पर मसनद सिंहासन का जादू  
 
तुम जिन पर मसनद सिंहासन का जादू  
 
होगे तुम  दर्शन  के  मनमौजी साधू  
 
होगे तुम  दर्शन  के  मनमौजी साधू  
    पहने  हम  अश्रु, और  अरगनी नहीं है
+
::पहने  हम  अश्रु, और  अरगनी नहीं है
  
 
सिर पर धर गठरी में मुरदा-सी पीढ़ी  
 
सिर पर धर गठरी में मुरदा-सी पीढ़ी  
 
होगे जब चढ़ते  तुम सीढ़ी पर सीढ़ी
 
होगे जब चढ़ते  तुम सीढ़ी पर सीढ़ी
    उस क्षण के लिए इंगित को तर्जनी नहीं है
+
::उस क्षण के लिए इंगित को तर्जनी नहीं है
  
 
किसी महाभारत  के आधुनिक पुजारी!  
 
किसी महाभारत  के आधुनिक पुजारी!  
 
होगे तुम द्रोण,  मठाधीश, धनुर्धारी
 
होगे तुम द्रोण,  मठाधीश, धनुर्धारी
      अर्जुन की  एकलव्य से बनी नहीं है
+
::अर्जुन की  एकलव्य से बनी नहीं है
  
रोज आत्महत्या की लाशें चिल्लातीं--  
+
रोज़ आत्महत्या की लाशें चिल्लातीं--  
 
’हम प्रभातफेरी  की हैं मरण-प्रभाती’  
 
’हम प्रभातफेरी  की हैं मरण-प्रभाती’  
    तुम-जैसी राका तो ओढ़नी नहीं है
+
::तुम-जैसी राका तो ओढ़नी नहीं है
 
   
 
   
 
दिशा-दिशा बिखरी हैं तिमिर-मिली किरनें  
 
दिशा-दिशा बिखरी हैं तिमिर-मिली किरनें  
अहरह  वक्तव्य दिया  गांव ने, नगर ने—
+
अहरह  वक्तव्य दिया  गाँव ने, नगर ने—
    चलनी से ज्योति अभी तक छनी नहीं है
+
::चलनी से ज्योति अभी तक छनी नहीं है
 +
</poem>

11:05, 31 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

फूल गिराते होंगे, हिला स्वप्न डाली
होगे तुम ग्रह-ग्रह के रत्न, अंशुमाली
आंगन हैं हम कि जहाँ रोशनी नहीं है

रासों की रात ओढ़ पीताम्बर चीवर
होगे तुम शब्दों के मीठे वंशीधर
मिट्टी ने, पर, वंशी-धुन सुनी नहीं है

ओ रे ओ अभिमानी गीत, महलवाले!
होगे तुम उत्सव की चहल-पहलवाले
दीवाली गलियों में तो मनी नहीं है

तुम जिन पर मसनद सिंहासन का जादू
होगे तुम दर्शन के मनमौजी साधू
पहने हम अश्रु, और अरगनी नहीं है

सिर पर धर गठरी में मुरदा-सी पीढ़ी
होगे जब चढ़ते तुम सीढ़ी पर सीढ़ी
उस क्षण के लिए इंगित को तर्जनी नहीं है

किसी महाभारत के आधुनिक पुजारी!
होगे तुम द्रोण, मठाधीश, धनुर्धारी
अर्जुन की एकलव्य से बनी नहीं है

रोज़ आत्महत्या की लाशें चिल्लातीं--
’हम प्रभातफेरी की हैं मरण-प्रभाती’
तुम-जैसी राका तो ओढ़नी नहीं है
 
दिशा-दिशा बिखरी हैं तिमिर-मिली किरनें
अहरह वक्तव्य दिया गाँव ने, नगर ने—
चलनी से ज्योति अभी तक छनी नहीं है