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"इतने भी तन्हा थे दिल के कब दरवाज़े / सुरेश चन्द्र शौक़" के अवतरणों में अंतर

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कोई जा कर किससे अपना दु:ख—सुख बाँटे
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कोई जा कर किससे अपना दु:ख-सुख बाँटे
  
 
कौन खुले रखता है दिल के अब दरवाज़े  
 
कौन खुले रखता है दिल के अब दरवाज़े  
  
  
अहले—सियासत ने कैसा तामीर किया घर
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अहले-सियासत ने कैसा तामीर<ref>योजना </ref> किया घर
  
कोना—कोना   बेहंगम, बेढब दरवाज़े  
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कोना-कोना   बेहंगम<ref>बेडौल/ref> बेढब दरवाज़े  
  
  
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ख़लवत में भी दिल की बात न दिल से कहना
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ख़लवत<ref>एकान्त
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</ref> में भी दिल की बात न दिल से कहना
  
दीवारें रखती हैं कान और लब दरवाज़े  
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दीवारें रखती हैं कान और लब<ref>होंठ</ref> दरवाज़े  
  
  
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शहरों में घर बंगले बेशक आली—शाँ हैं
 
शहरों में घर बंगले बेशक आली—शाँ हैं
  
लेकिन रूखे फीके बे—हिस सब दरवाज़े  
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लेकिन रूखे फीके बे—हिस<ref>स्तब्ध,सुन्न</ref>सब दरवाज़े  
  
  
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‘शौक़’ खुले रखता हूँ दिल के सब दरवाज़े
 
‘शौक़’ खुले रखता हूँ दिल के सब दरवाज़े
 
   
 
   
 
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बेहंगम=बेडौल; ख़लवत=एकान्त;बेहिस=स्तब्ध,सुन्न
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20:39, 4 सितम्बर 2009 का अवतरण

इतने भी तन्हा थे दिल के कब दरवाज़े

इक दस्तक को तरस रहे हैं अब दरवाज़े


कोई जा कर किससे अपना दु:ख-सुख बाँटे

कौन खुले रखता है दिल के अब दरवाज़े


अहले-सियासत ने कैसा तामीर<ref>योजना </ref> किया घर

कोना-कोना बेहंगम<ref>बेडौल/ref> बेढब दरवाज़े


एक ज़माना यह भी था देहात में सुख का

लोग खुले रखते थे घर के सब दरवाज़े


एक ज़माना यह भी है ग़ैरों के डर का

दस्तक पर भी खुलते नहीं हैं अब दरवाज़े


ख़लवत<ref>एकान्त </ref> में भी दिल की बात न दिल से कहना

दीवारें रखती हैं कान और लब<ref>होंठ</ref> दरवाज़े


फ़रियादी अब लाख हिलाएँ ज़ंजीरों को

आज के शाहों के कब खुलते हैं दरवाज़े


शहरों में घर बंगले बेशक आली—शाँ हैं

लेकिन रूखे फीके बे—हिस<ref>स्तब्ध,सुन्न</ref>सब दरवाज़े


कोई भी एहसास का झोंका लौट न जाए

‘शौक़’ खुले रखता हूँ दिल के सब दरवाज़े

{KKMeaning}}