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जैसे फोंकियॉं छोडकर जाती हैं | जैसे फोंकियॉं छोडकर जाती हैं | ||
+ | पपीते के पेड़ों के हवाले। | ||
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महकती हैं चंद सुरों तक | महकती हैं चंद सुरों तक | ||
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दूर-दुर के बटोही | दूर-दुर के बटोही | ||
− | + | रोकते हैं क़दम | |
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− | इन सुरों की | + | |
पोंछते हैं भीगी कोर | पोंछते हैं भीगी कोर | ||
− | + | और बढ़ जाते हैं नून-तेल-लकड़ी की तरफ़। | |
− | और | + | </poem> |
22:55, 4 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
बिना पैसे के दिनों और
बिना नींद की रातों की स्वरलिपियॉं
खुदी हैं आत्मा पर।
बने हैं निशान
जैसे फोंकियॉं छोडकर जाती हैं
पपीते के पेड़ों के हवाले।
फोंफियों की बाँसुरियाँ
महकती हैं चंद सुरों तक
और फिर चटख जाती हैं।
दूर-दुर के बटोही
रोकते हैं क़दम
इन सुरों की छाँह में
पोंछते हैं भीगी कोर
और बढ़ जाते हैं नून-तेल-लकड़ी की तरफ़।