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आम्रपाली / अनामिका

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|संग्रह=दूब-धान / अनामिका
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<poem>
था आम्रपाली का घर
मेरी ननिहाल के उत्तर!
आज भी हर पूनो की रात
खाली कटोरा लिये हाथ
गुज़रती है वैशाली के खंडहरों से
बौद्धभिक्षुणी आम्रपाली।
था आम्रपाली का घर<br>अगल-बगल नहीं देखती,मेरी ननिहाल के उत्तर !<br>चलती है सीधी-मानो खुद से बातें करती-आज भी हर पूनो शरदकाल में जैसे(कमंडल-वमंडल बनाने की रात<br>ख़ातिर)खाली कटोरा लिये हाथ<br>पकने को छोड़ दी जाती हैगुजरती लतर में ही लौकी-पक रही है वैशाली के खंडहरों से<br>मेरी हर माँसपेशी,बौद्धभिक्षुणी आम्रपाली।<br><br>खदर-बदर है मेरे भीतर काहहाता हुआ सत!
अगलसूखती-बगल नहीं देखती,<br>टटाती हुईहड्डियाँ मेरीचलती है सीधीमरे कबूतर-मानो खुद से बातें करतीजैसीइधर-<br>उधर फेंकी हुईं मुझमें।शरदकाल में जैसे<br>सोचती हूँ-क्या वो मैं ही थी-(कमंडलनगरवधू-वमंडल बनाने की खातिर)<br>बज्जिसंघ के बाहर के लोग भी जिसकीपकने एक झलक को छोड़ दी जाती है<br>तरसते थे?लतर में ही लौकीये मेरे सन-<br>से सफ़ेद बालपक रही है मेरी हर मांसपेशीथे कभी भौरें के रंग के, कहते हैं लोग,<br>खदरनीलमणि थीं मेरी आँखेंबेले के फूलों-बदर है मेरे भीतर का<br>सी झक सफ़ेद दन्तपंक्ति :हहाता हुआ सत खंडहर का अर्द्धध्वस्त दरवाज़ा हैं अब जो!<br><br>जीवन मेरा बदला, बुद्ध मिले,बुद्ध को घर न्योतकरअपने रथ से जब मैं लौट रही थी
सूखती-टटाती हुई<br>हड्डियाँ मेरी<br>मरे कबूतर-जैसी<br>इधर-उधर फेंकी हुईं मुझमें।<br>सोचती हूँ-क्या वो मैं ही थी-<br>नगरवधू-बज्जिसंघ कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के बाहर के लोग भी जिसकी<br>रथ सेएक झलक को तरसते थे ?<br>ये टकरा गया मेरे सन-से सफेद बाल<br>रथ केथे कभी भौरें के रंग धुर केधुर, कहते हैं लोगचक्के से चक्का,<br>नीलमणि थीं मेरी आँखें<br>बेले के फूलों-सी झक सफेद दन्तपंक्ति :<br>खंडहर का अर्द्धध्वस्त दरवाजा हैं अब जो जुए से जुआ!<br>जीवन मेरा बदलालिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता, बुद्ध मिले,<br>बुद्ध को घर न्योतकर<br>अपने रथ से जब मैं लौट रही थी<br><br>बोले वे चीख़कर-
कुछ ‘‘जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ धुर से<br>टकरा गया मेरे रथ का<br>धुर के धुर, चक्के से चक्का, जुए से जुआ !<br>लिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता,<br>बोले वे चीखकर-<br><br>अपना टकराती है ?’
‘‘आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथभगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !’’‘‘जे आम्रपाली!सौ हज़ार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे!’’‘‘आर्यपुत्रो, क्यों तरुण यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देनेवाली!’’मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमारों के धुर कुमारचटकाने लगे उंगलियाँ :‘हाय, हम आम्रपाली से<br>परास्त हुए तो अब चलो,धुर अपना टकराती है ?’’<br><br>बुद्ध को जीतें!’कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,उन्हें घर न्योता,पर बुद्ध ने मान मेरा ही रखऔर कहा-‘रह जाएगी करुणा, रह जाएगी मैत्री,बाकी सब ढह जाएगा...’‘‘तो बहा काल-नद में मेरा वैभव...राख की इच्छामती,राख की गंगा,राख की कृष्णा-कावेरी,गरम राख की ढेरीयह कायाबहती रहीसदियोंइस तट से उस तट तक!टिमकता रहा एक अंगारा,तिरता रहा राख की इस नदी परबना-ठना,
‘‘आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ<br>ठना-बनाभगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार तैरा लगातार!’’<br>‘‘जे आम्रपाली तैरी सोने की तरी!<br>सौ हजार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे !’’<br>‘‘आर्यपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,<br>मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देनेवाली !’’<br>मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार<br>चटकाने लगे उँगलियाँ :<br>‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,<br>बुद्ध को जीतें !’<br>कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,<br>उन्हें घर न्योता,<br>पर बुद्ध ने मान मेरा ही रखा<br>और कहा-‘रह जाएगी करुणा, रह जाएगी मैत्री,<br>बाकी सब ढह जाएगा...’<br>‘‘तो बहा काल-नद में मेरा वैभव...<br>राख की इच्छामती,<br>!राख की गंगा,<br>!राख की कृष्णा-कावेरी,<br>कावेरी।गरम राख झुर्रियों की ढेरी<br>यह काया<br>बहती रही<br>सदियों<br>इस तट से उस तट तक !<br>टिमकता रहा एक अंगारा,<br>तिरता रहा राख की इस नदी पर<br>बना-ठना,<br>पोटली में
ठनाबीज थोड़े से सुरक्षित हैं-बना<br>तैरा लगातार !<br>वो ही मैं डालती जाती हूँतैरी सोने की तरी अब इधर-उधर!<br>राख की इच्छामती !<br>गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,राख की गंगा !<br>चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,राख की कृष्णाबाक़ी खिले जाते हैं जिधर-कावेरी।<br>तिधरझुर्रियों की पोटली में<br><br>चुटकी-भर हरियाली बनकर।’’
बीज थोड़े से सुरक्षित हैं-<br>वो ही मैं डालती जाती हूँ<br>अब इधर-उधर !<br>गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,<br>चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,<br>बाकी खिले जाते हैं जिधर-तिधर<br>चुटकी-भर हरियाली बनकर।’’<br><br> सुनती हूँ मैं गौर ग़ौर से आम्रपाली की बातें<br>सोचती हूँ कि कमंडल या लौकी या बीजकोष-<br>जो भी बने जीवन, जीवन तो जीवन है !<br>हरियाली ही बीज का सपना,<br>रस ही रसायन है !<br>कमंडल-वमंडल बनाने की खातिर<br>ख़ातिरशरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है<br>लतर में ही लौकी<br>पक रही है मेरी हर मांसपेशी माँसपेशी तो पकने दो, उससे क्या ?<br>कितनी तो सुन्दर सुंदर है<br>
हर रूप में दुनिया !
</poem>
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