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− | लिखने की | + | लिखने की मेज़ वही है, |
− | वही आसन, | + | वही आसन, |
− | पांडुलिपि वही, वही बासन | + | पांडुलिपि वही, वही बासन |
− | जिसमें मैं रखती थी खील-बताशा | + | जिसमें मैं रखती थी खील-बताशा |
− | दीया-बत्ती की वेला हर शाम ! | + | दीया-बत्ती की वेला हर शाम! |
− | कभी-कभी बेला और | + | कभी-कभी बेला और चंपा भी |
− | रख आती थी जाकर चुपचाप | + | रख आती थी जाकर चुपचाप |
− | खील-बताशा-पानी-दीया के साथ ! | + | खील-बताशा-पानी-दीया के साथ! |
− | पूरे इक्कीस बरस बस यही जीवन-क्रम- | + | पूरे इक्कीस बरस बस यही जीवन-क्रम- |
− | कुछ देर इन्हें देखती काम में लीन, | + | कुछ देर इन्हें देखती काम में लीन, |
− | जैसे कि देखते हैं | + | जैसे कि देखते हैं सुंदर मूरत शिवजी की... |
− | पत्थर की मूरत ही बने रहे ये पूरे इक्कीस साल ! | + | पत्थर की मूरत ही बने रहे ये पूरे इक्कीस साल! |
− | फिर एक शाम एक | + | फिर एक शाम एक आंधी-सी आई, |
− | बिखरने लगे | + | बिखरने लगे ग्रंध के पन्ने, |
− | टूटी | + | टूटी तंद्रा तो मुझे देखा |
− | पन्नों के पीछे यों भागते हुए जैसे हिरनों के, | + | पन्नों के पीछे यों भागते हुए जैसे हिरनों के, |
− | चौंके : ‘हे देवि, | + | चौंके: ‘हे देवि, |
− | परिचय तो दें, | + | परिचय तो दें, |
− | आप कौन ?’ | + | आप कौन?’ |
− | मुझको हँसी आ गयी- | + | मुझको हँसी आ गयी- |
− | + | ‘लाए थे जब ब्याहकर तो छोटी थी न, | |
− | फिर आप लिखने में ऐसे लगे, | + | फिर आप लिखने में ऐसे लगे, |
− | दुनिया की सुध बिसर | + | दुनिया की सुध बिसर गई, लगता है जैसे भूल ही गए- |
− | + | वेदांत के भाष्य के ही समानांतर | |
− | इस घर में बढ़ी जा रही है | + | इस घर में बढ़ी जा रही है |
− | पत्ती-पत्ती | + | पत्ती-पत्ती |
− | आपकी भार्या भी ! | + | आपकी भार्या भी! |
− | तो क्या मैं इतनी | + | तो क्या मैं इतनी बड़ी हो गई |
− | कि पहचान में ही नहीं आती ?’ | + | कि पहचान में ही नहीं आती?’ |
+ | पानी-पानी होकर | ||
+ | इस बात पर | ||
+ | पानी में ही | ||
+ | बहा आए | ||
+ | आप तो | ||
+ | अपनी वह पांडुलिपि, | ||
− | + | जो मैं नहीं दौड़ती पीछे- | |
− | + | पृष्ठ बीछ ले आने पानी से, | |
− | + | गडमड हो चुकते सब अक्षर... | |
− | + | घुल जाती पानी में स्याही, | |
− | + | शब्द पर शब्द फिसल आते, | |
− | + | मेहनत से मैंने वे अक्षर भी बीछे, | |
− | + | जैसे कि चावल, | |
− | जो मैं नहीं दौड़ती पीछे- | + | अक्षर पर अक्षर दुबारा उगाए |
− | पृष्ठ बीछ ले आने पानी से, | + | अपने सिंदूर और काजल से, |
− | गडमड हो चुकते सब अक्षर... | + | भूर्जपत्र फिर से सिले- |
− | घुल जाती पानी में स्याही, | + | ताग-पात ढोलना लगाके! |
− | शब्द पर शब्द फिसल आते, | + | अक्षर पर अक्षर |
− | मेहनत से मैंने वे अक्षर भी बीछे, | + | अक्षर पर अक्षर.... |
− | जैसे कि चावल, | + | अक्षर मैं |
− | अक्षर पर अक्षर दुबारा | + | और आप अक्षर, |
− | अपने सिंदूर और काजल से, | + | टप-टप-टप-टप |
− | भूर्जपत्र फिर से सिले- | + | ये लो, |
− | ताग-पात ढोलना लगाके ! | + | रोते हैं क्या ज्ञानी-ध्यानी यों? |
− | अक्षर पर अक्षर | + | क्यों रो रहे हैं जी... |
− | अक्षर पर अक्षर.... | + | |
− | अक्षर मैं | + | |
− | और आप अक्षर, | + | |
− | टप-टप-टप- | + | |
− | ये लो, | + | |
− | रोते हैं क्या ज्ञानी-ध्यानी यों ? | + | |
− | क्यों रो रहे हैं जी... | + | |
चुप-चुप..? | चुप-चुप..? |
01:28, 6 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
लिखने की मेज़ वही है,
वही आसन,
पांडुलिपि वही, वही बासन
जिसमें मैं रखती थी खील-बताशा
दीया-बत्ती की वेला हर शाम!
कभी-कभी बेला और चंपा भी
रख आती थी जाकर चुपचाप
खील-बताशा-पानी-दीया के साथ!
पूरे इक्कीस बरस बस यही जीवन-क्रम-
कुछ देर इन्हें देखती काम में लीन,
जैसे कि देखते हैं सुंदर मूरत शिवजी की...
पत्थर की मूरत ही बने रहे ये पूरे इक्कीस साल!
फिर एक शाम एक आंधी-सी आई,
बिखरने लगे ग्रंध के पन्ने,
टूटी तंद्रा तो मुझे देखा
पन्नों के पीछे यों भागते हुए जैसे हिरनों के,
चौंके: ‘हे देवि,
परिचय तो दें,
आप कौन?’
मुझको हँसी आ गयी-
‘लाए थे जब ब्याहकर तो छोटी थी न,
फिर आप लिखने में ऐसे लगे,
दुनिया की सुध बिसर गई, लगता है जैसे भूल ही गए-
वेदांत के भाष्य के ही समानांतर
इस घर में बढ़ी जा रही है
पत्ती-पत्ती
आपकी भार्या भी!
तो क्या मैं इतनी बड़ी हो गई
कि पहचान में ही नहीं आती?’
पानी-पानी होकर
इस बात पर
पानी में ही
बहा आए
आप तो
अपनी वह पांडुलिपि,
जो मैं नहीं दौड़ती पीछे-
पृष्ठ बीछ ले आने पानी से,
गडमड हो चुकते सब अक्षर...
घुल जाती पानी में स्याही,
शब्द पर शब्द फिसल आते,
मेहनत से मैंने वे अक्षर भी बीछे,
जैसे कि चावल,
अक्षर पर अक्षर दुबारा उगाए
अपने सिंदूर और काजल से,
भूर्जपत्र फिर से सिले-
ताग-पात ढोलना लगाके!
अक्षर पर अक्षर
अक्षर पर अक्षर....
अक्षर मैं
और आप अक्षर,
टप-टप-टप-टप
ये लो,
रोते हैं क्या ज्ञानी-ध्यानी यों?
क्यों रो रहे हैं जी...
चुप-चुप..?