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"धूप / विनोद निगम" के अवतरणों में अंतर
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पर्वतों पर छन्द फिर बिखरा दिये हैं | पर्वतों पर छन्द फिर बिखरा दिये हैं | ||
लौटकर जाती घटाओं ने। | लौटकर जाती घटाओं ने। | ||
− | पेड़, फिर | + | पेड़, फिर पढ़नें लगे हैं, धूप के अखबार |
फुरसत से दिशाओं में | फुरसत से दिशाओं में | ||
निकल फूलों के नशीले बार से | निकल फूलों के नशीले बार से | ||
− | + | लड़खड़ाती है हवा | |
− | पाँव दो | + | पाँव दो पड़ते नहीं हैं ढंग से। |
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20:57, 10 सितम्बर 2009 का अवतरण
घाटियों में रितु सुखाने लगी है
मेघ घोये वस्त्र अनगिन रंग के
आ गये दिन, धूप के सत्संग के
पर्वतों पर छन्द फिर बिखरा दिये हैं
लौटकर जाती घटाओं ने।
पेड़, फिर पढ़नें लगे हैं, धूप के अखबार
फुरसत से दिशाओं में
निकल फूलों के नशीले बार से
लड़खड़ाती है हवा
पाँव दो पड़ते नहीं हैं ढंग से।