"ज्योति सत्ता का गीत / निर्मला जोशी" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
}} | }} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | |||
तिमर के पाहुन किसी दिन आैर आकर भेट करना | तिमर के पाहुन किसी दिन आैर आकर भेट करना | ||
इस समय मैं ज्योति को विस्तार देने में लगी हंू। | इस समय मैं ज्योति को विस्तार देने में लगी हंू। |
13:28, 13 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
तिमर के पाहुन किसी दिन आैर आकर भेट करना
इस समय मैं ज्योति को विस्तार देने में लगी हंू।
इस दिये से ही हृदय संसार
सदियों ---से ---प्रकाशित।
यह सुनिश्चित रोशनी होने
नहीं ---पाई ---विभाजित।
यह मुझे संभावना, लय आैर स्वर तक सौंप बैठा
इसलिए -मैं गीत को -आकार -देने -में लगी हंू।
तन तपाकर ही इसे यह देह
कंचन --की ---मिली --है।
बातियों --को -मुक्त मन से
संिध -नतर्न -की -मिली -है।
यह समय अंिधयार के अवसान का है, यह समझकर
जि़ंदगी -को -मैं -नया -आधार -देने -में -लगी -हंू।
दीप -माटी -के -तुम्हारे
नाम --की -आराधनाएं।
हो -गई -इतनी -सजल
जैसे कि हो संवेदनाएं।
इस अमावस में मनुज के पांव चलते थक न जायें
आस्थाआें -का -सकल -उपचार -देने -में -लगी हंू।
ज्योति निझर्र में नहाकर
धरा -आलोकित हुई -है।
रिश्मयों के साथ बंदनवार
भी -पुलकित --हुई ---है।
एक दीपक द्वार पर मैंने जलाया नाम जिसके
स्वस्ितकों का पुण्यमय अधिकार देने में लगी हंू।