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− | लाल पत्थर लाल मिट्टी लाल कंकड़ लाल बजरी
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− | लाल फूले ढाक के वन डाँग गाती फाग कजरी
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− | सनसनाती साँझ सूनी वायु का कंठला खनकता
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− | झींगुरों की खंजड़ी पर झाँझ-सा बीहड़ झनकता
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− | कंटकित बेरी करौंदे महकते हैं झाब झोरे
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− | सुन्न हैं सागौन वन के कान जैसे पात चौड़े
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− | ढूह, टीले, टोरियों पर धूप-सूखी घास भूरी
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− | हाड़ टूटे देह कुबड़ी चुप पड़ी है देह बूढ़ी
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− | ताड़, तेंदू, नीम, रेंजर चित्र लिखी खजूर पाँतें
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− | छाँह मंदी डाल जिन पर ऊँघती हैं शुक्ल रातें
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− | बीच सूने में बनैले ताल का फैला अतल जल
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− | थे कभी आए यहाँ पर छोड़ दमयंती दुखी नल
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− | भूख व्याकुल ताल से ले मछलियाँ थीं जो पकाईं
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− | शाप के कारण जली ही वे उछल जल में समाईं
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− | है तभी से साँवली सुनसान जंगल की किनारी
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− | हैं तभी से ताल की सब मछलियाँ मनहूस काली
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− | पूर्व से उठ चाँद आधा स्याह जल में चमचमाता
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− | बनचमेली की जड़ों से नाग कसकर लिपट जाता
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− | कोस भर तक केवड़े का है गसा गुंजान जंगल
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− | उन कँटीली झाड़ियों में उलझ जाता चाँद चंचल
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− | चाँदनी की रैन चिड़िया गंध कलियों पर उतरती
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− | मूँद लेती नैन गोरे पाँख धीरे बंद करती
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− | गंध घोड़े पर चढ़ी दुलकी चली आती हवाएँ
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− | टाप हल्के पड़ें जल में गोल लहरें उछल आएँ
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− | सो रहा बन ढूह सोते ताल सोता तीर सोते
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− | प्रेतवाले पेड़ सोते सात तल के नीर सोते
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− | ऊँघती है रूँध करवट ले रही है घास ऊँची
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− | मौन दम साधे पड़ी है टोरियों की रास ऊँची
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− | साँस लेता है बियाबां डोल जातीं सुन्न छाँहें
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− | हर तरफ गुपचुप खड़ी हैं जनपदों की आत्माएँ
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− | ताल की है पार ऊँची उतर गलियारा गया है
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− | नीम, कंजी, इमलियों में निकल बंजारा गया है
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− | बीच पेड़ों की कटन में हैं पड़े दो चार छप्पर
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− | हाँडियाँ, मचिया, कठौते लट्ठ, गूदड़, बैल, बक्खर
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− | राख, गोबर, चरी, औंगन लेज, रस्सी, हल, कुल्हाड़ी
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− | सूत की मोटी फतोही चका, हँसिया और गाड़ी
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− | धुआँ कंडों का सुलगता भौंकता कुत्ता शिकार
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− | है यहाँ की जिंदगी पर शाप नल का स्याह भारी
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− | भूख की मनहूस छाया जब कि भोजन सामने हो
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− | आदमी हो ठीकरे-सा जबकि साधन सामने हो
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− | धन वनस्पति भरे जंगल और यह जीवन भिखरी
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− | शाप नल का घूमता है भोथरे हैं हल-कुल्हाड़ी
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− | हल कि जिसकी नोक से बेजान मिट्टी झूम उठती
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− | सभ्यता का चाँद खिलता जंगलों की रात मिटती
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− | आइनों से गाँव होते घर न रहते धूल कूड़ा
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− | जम न जाता ज़िंदगी पर युगों का इतिहास-घूरा
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− | मृत्यु-सा सुनसान बनकर जो बनैला प्रेत फिरता
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− | खाद बन जीवन फसल की लोक मंगल रूप धरता
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− | रंग मिट्टी का बदलता नीर का सब पाप धुलता
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− | हरे होते पीत ऊसर स्वस्थ हो जाती मनुजता
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− | लाल पत्थर, लाल मिट्टी लाल कंकड़, लाल बजरी
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− | फिर खिलेंगे झाक के वन फिर उठेगी फाग कजरी।
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