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"मेंहदी सिसकती रही / राकेश खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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मेरे चेहरे पे अनगिन मुखौटे चढ़े
 
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मैंने भर्म को हकीकत है माना सदा
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बालू मुट्ठी से पल पल खिसकती रही
 
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बीन के राग को छेड़ने के लिए
 
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दृष्टि के पाटलों पे न आए कभी
 
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वेद आशा का आह्वान करते रहे
 
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दिक्षणा के लिए शेष कुछ न बचा
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15:25, 15 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण

नाम तुमने कभी मुझसे पूछा नहीं
कौन हूं मैं, ये मैं भी नहीं जानता
आईने का कोई अक्स बतलाएगा
असलियत क्या मेरी, मैं नहीं मानता
मेरे चेहरे पे अनगिन मुखौटे चढ़े
वक्त के साथ जिनको बदलता रहा
मैंने भ्रम को हकीकत है माना सदा
मैं स्वयं अपने खुद को हूं छलता रहा

हाथ आईं नहीं मेरे उपलब्धियां
बालू मुट्ठी से पल पल खिसकती रही
बीन के राग को छेड़ने के लिए
हाथ की लाल मेंहदी सिसकती रही

यज्ञ करते हुए हाथ मेरे जले
मंत्र भी होंठ को छू न पाए कभी
आहुति आहुति स्वप्न जलते रहे
दृष्टि के पाटलों पे न आए कभी
कामनाएं ऋचाओं में उलझी रहीं
वेद आशा का आह्वान करते रहे
उम्र बन कर पुरोहित छले जा रही
जिंदगी होम, हम अपनी करते रहे

दक्षिणा के लिए शेष कुछ न बचा
अश्रु बूंद अंजुर में भरती रही
बीन के राग को छेड़ने के लिए
हाथ की लाल मेंहदी सिसकती रही

एक बढ़ते हुए मौन की गोद में
मेरे दिन सो गए मेरी रातें जगीं
एक थैली में भर धूप, संध्या मेरे
द्वार पर आके करती रही दिल्लगी
होके निस्तब्ध हर इक दिशा देखती
दायरों में बंधा चक्र चलता रहा
किससे कहते सितारे हृदय की व्यथा
चांद भी चांदनी में पिघलता रहा

एक आवारगी लेके आगोश में
मेरे पग, झांझरों सी खनकती रही
एक सूरज रहा मुट्ठियों में छुपा
रोशनी दीप के द्वार ठहरी रही

अर्थ विश्वास के दायरों में बंधे
सत्य को सवर्दा भर्म में डाले रहे
मोमबत्ती जला ढूंढ़ता सूर्य था
पर अंधेरों में लिपटे उजाले रहे
प्यास सावन लिए था खड़ा व्योम में
कोई पनघट बुझाने को आया नहीं
तार पर सरगमें रोते रोते थकीं
साज़ ने गीत पर गुनगुनाया नहीं

और बदनामियों से डरी, मुंह छुपा
बिजली बादल के घर में कलपती रही
बीन के राग को छेड़ने के लिए
हाथ की लाल मेंहदी सिसकती रही