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15:42, 16 सितम्बर 2009 का अवतरण
एक नदी बादल की
एक नदी आँगन की
काट गई दोनों
निराधार आधार
वह चले कारागार
आज कौन देख पाएगा
मटियाली लहरों का ताण्डव ?
पर्वतों घिरी हवाओं की नाभि पर
रुक कर बहती है
बारिश की धार
बढ़ गया
असंख्य धाराओं का भार
उफने फिर
आकाशी नदियों के सांप
जल
जल
जल
एकाएक आकाश की आंख में
चुभती है एक रक्तिम शूल
गिरती है एक आकाशी नदी
पर्वत पर
घाटी पर
और
घाटी में बहती नदिया पर
नदी कवि से नहीं बतियाती
पर कवि बतियाता है नदी से
तुमने देखी है क्या
लुढ़कती नुकीली चट्टानें
पर्वत के माथे से
उछल गिरती असंख्य शिलाएं
देखें हैं क्या तुमने
अधियारी रातों में
चमचमाते
गिरते प्रपात
और
हहरा कर खिसके पहाड़ ?
अंधियारे महानाद में दबी
सुनी हैं क्या तुमने
कुछ इनसानी चीखें
विलाप करते
सरसराते 'सफेदे', 'बण', 'कचिआण', 'बादाम' ?
आज सुबह इस जंगल में नगर को नगर से जोड़ती सड़क पर
कीचड़------सने कुछ पांव
चट्टानों से जूझते
आकाश को बूझते
धरती मे धंस गए
मेट के रजिस्टर से कट गई
एक और सीता
चट्टानों को उबारते
दब गये राम
हे हठी विक्रमार्क !
तुम नहीं जानते क्या
कि युगों-युगों से
अहल्या की मुक्ति
राम का स्वप्न है ?
इधर पर्वत के विशाल वक्ष पर
रिसती सलेटों की छत तले
बारिश के निरन्तर नाद में
बिलबिलाते हैं
एक लव
एक कुश
और जब
दिशाओं के तम्बू में
रात की कुण्डली लिपटी
सो जाती है अयोध्या
मां कहती है :
मेरी अयोध्या में
उतरते नहीं
पुष्पक विमान'।
कैसे कहूं
कि बिस्तर पर जाते ही
मेर पीछे भागी थी नींद की डायन
कि देखे थे मैंने
लिपे-पुते घोड़ों पर
भाले लहराते
घोड़े भगाए आते
घोड़े भगाए जाते
कुछ म्यूर पंखी भील
मेरी अयोध्या के राम !
मेरे राम !
विनाशों के बाद खिली धूप में
मुझे कुछ नहीं, कुछ नहीं दिखता।