भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"खुली किताब से / माधव कौशिक" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माधव कौशिक |संग्रह=अंगारों पर नंगे पाँव / माधव क...)
 
(कोई अंतर नहीं)

20:03, 16 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण

खुली किताब से शामो-सहर भी आएंगे
भरी दुपहर भी तारे नज़र भी आएंगे ।

जला के कोई न रक्खे चिराग़ गलियों में
लुटेरे लूटने शायद इधर भी आएंगे ।

अभी तो हाथ ही काटे गए हैं सपनों के
ज़मीं पे टूटकर ख़्वाबों के सर भी आएंगे ।

जो शख़्स देर तक उलझा रहेगा कांटों से
उसी के हाथ में तितली के पर भी आएंगे ।

बस अपनी रूह के ज़ख़्मों को तुम हरा रखना
सफ़र में सैंकड़ों सूखे शजर भी आएंग़े ।

चलो गुनाह के पत्थर ही जेब में रख लें
सुना है राह में शीशे के घर भी आएंग़े ।