भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सिर्फ़ उन्हीं लोगों का / माधव कौशिक" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माधव कौशिक |संग्रह=अंगारों पर नंगे पाँव / माधव क...)
 
(कोई अंतर नहीं)

22:00, 16 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण

सिर्फ उन्हीं लोगों का चर्चा होता है अख़बारों में
वक़्त जिन्हें चिनवा देता है जीते जी दीवारों में ।

उसे बताओ सिवा धुएं के उसको और मिलेगा क्या
कब से घर को ढूंढ रहा है इन जलते अंगारों में ।

हाथों में हथकड़ी, पावों में बेड़ी पहने मनवाता
गुनाहगार सी खड़ी हुई है, सदियों से दरबारों में ।

इंसानी क़दरें रोकें या ग़ैरत उनको ललकारे
बिकने वाले बिक जाते हैं सरेआम बाज़ारों में।

सधी-सधाई आंखें जिसको बिल्कुल पकड़ नहीं पातीं
जाने ऐसा क्या होता है लोगों के किरदारों में।

मोसम ने भी आज उन्हीं को गुलशन का मुख़्तार चुना
कल तक जो चेहरे शामिल थे फूलों के हत्यारों में।