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"एक आस / रंजना भाटिया" के अवतरणों में अंतर

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23:04, 16 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण

कविता में उतरे यह लफ्ज़
ज़िन्दगी की टूटी हुई
कांच की किरचें हैं
यूँ ही ढाल लेती हूँ
इन्हें लफ्जों में
फ़िर सहजती हूँ
इन्ही दर्द के एहसासों को
सुबह अलसाई ....
ओस की बूंदों की तरह
अपनी बंद पलकों में...
और अपने अस्तित्व को
तलाशती हूँ इनमें ...
पर ,हर सुबह
यह तलाश वही थम जाती है..
सूरज की जगमगाती
उम्मीद की किरण...
जब बिंदी सी माथे पर
चमक जाती है..
एक आस जो,
खो गई है कहीं
वह रात आने तक
जीने का एक बहाना दे जाती है....