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"एक आस / रंजना भाटिया" के अवतरणों में अंतर
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कविता में उतरे यह लफ्ज़
ज़िन्दगी की टूटी हुई
कांच की किरचें हैं
यूँ ही ढाल लेती हूँ
इन्हें लफ्जों में
फ़िर सहजती हूँ
इन्ही दर्द के एहसासों को
सुबह अलसाई ....
ओस की बूंदों की तरह
अपनी बंद पलकों में...
और अपने अस्तित्व को
तलाशती हूँ इनमें ...
पर ,हर सुबह
यह तलाश वही थम जाती है..
सूरज की जगमगाती
उम्मीद की किरण...
जब बिंदी सी माथे पर
चमक जाती है..
एक आस जो,
खो गई है कहीं
वह रात आने तक
जीने का एक बहाना दे जाती है....