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"तीन कवितायें / दीप्ति नवल" के अवतरणों में अंतर

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मैंने देखा है दूर कहीं परबतों के पेड़ों पर
 
मैंने देखा है दूर कहीं परबतों के पेड़ों पर
 
शाम जब चुपके से बसेरा कर ले
 
शाम जब चुपके से बसेरा कर ले
और बकिरयों का झुन्ड़ लिए कोई चरवाहा
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और बकिरयों का झंड लिए कोई चरवाहा
कच्ची-कच्ची पगड़ंडि़यों से होकर
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कच्ची-कच्ची पगडंडियों से होकर
 
पहाड़ के नीचे उतरता हो
 
पहाड़ के नीचे उतरता हो
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मैंने देखा है जब ढलानों पे साए-से उमड़ने लगें
 
मैंने देखा है जब ढलानों पे साए-से उमड़ने लगें
 
और नीचे घाटी में
 
और नीचे घाटी में
 
वो अकेला-सा बरसाती चश्मा
 
वो अकेला-सा बरसाती चश्मा
 
छुपते सूरज को छू लेने के लिए भागे
 
छुपते सूरज को छू लेने के लिए भागे
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हाँ, देखा है ऐसे में और सुना भी है
 
हाँ, देखा है ऐसे में और सुना भी है
 
इन गहरी ठंडी वादियों में गूँजता हुआ कहीं पर
 
इन गहरी ठंडी वादियों में गूँजता हुआ कहीं पर
 
बाँसुरी का सुर कोई़...  
 
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यूं ही किसी चोटी पर
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देवदार के पेड़ के नीचे खड़े-खड़े
 
देवदार के पेड़ के नीचे खड़े-खड़े
 
मैंने दिन को रात में बदलते हुए देखा है!
 
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"बहुत घुटी-घुटी रहती हो...
 
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बहुत से साल पीछे जाना होगा
 
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और फिर वही से चलना होगा
 
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जहाँ से काँधे पे बस्ता उठाकर
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जहाँ से कांधे पे बस्ता उठाकर
 
स्कूल जाना शुरू किया था
 
स्कूल जाना शुरू किया था
 
इस जहन को बदलकर
 
इस जहन को बदलकर
 
कोई नया जहन लगवाना होगा
 
कोई नया जहन लगवाना होगा
और इस सबके बाद जिस रोज
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और इस सबके बाद जिस रोज़
 
खुलकर
 
खुलकर
 
खिलखिलाकर  
 
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ठहाका लगाकर
 
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किसी बात पे जब हँसूँगी
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किसी बात पे जब हँसूंगी
 
तब पहचानोगे क्या?
 
तब पहचानोगे क्या?
  
 
  
लोग एक ही नजर से देखते हैं
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औरत और मर्द् के रिश्ते को
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लोग एक ही नज़र से देखते हैं
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के रिश्ते को
 
क्योंकि उसे नाम दे सकते हैं ना!
 
क्योंकि उसे नाम दे सकते हैं ना!
नामों से बँधे
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नामों से बंधे
 
बेचारे यह लोग!
 
बेचारे यह लोग!
 
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18:11, 17 सितम्बर 2009 का अवतरण


1.

मैंने देखा है दूर कहीं परबतों के पेड़ों पर
शाम जब चुपके से बसेरा कर ले
और बकिरयों का झंड लिए कोई चरवाहा
कच्ची-कच्ची पगडंडियों से होकर
पहाड़ के नीचे उतरता हो

मैंने देखा है जब ढलानों पे साए-से उमड़ने लगें
और नीचे घाटी में
वो अकेला-सा बरसाती चश्मा
छुपते सूरज को छू लेने के लिए भागे

हाँ, देखा है ऐसे में और सुना भी है
इन गहरी ठंडी वादियों में गूँजता हुआ कहीं पर
बाँसुरी का सुर कोई़...

तब
यूँ ही किसी चोटी पर
देवदार के पेड़ के नीचे खड़े-खड़े
मैंने दिन को रात में बदलते हुए देखा है!


2.


"बहुत घुटी-घुटी रहती हो...
बस खुलती नहीं हो तुम!"
खुलने के लिए जानते हो
बहुत से साल पीछे जाना होगा
और फिर वही से चलना होगा
जहाँ से कांधे पे बस्ता उठाकर
स्कूल जाना शुरू किया था
इस जहन को बदलकर
कोई नया जहन लगवाना होगा
और इस सबके बाद जिस रोज़
खुलकर
खिलखिलाकर
ठहाका लगाकर
किसी बात पे जब हँसूंगी
तब पहचानोगे क्या?


3


लोग एक ही नज़र से देखते हैं
औरत और मर्द
के रिश्ते को
क्योंकि उसे नाम दे सकते हैं ना!
नामों से बंधे
बेचारे यह लोग!