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− | + | पास रह के भी बोहत दूर हैं दोस्त | |
− | + | अपने हालात से मजबूर हैं दोस्त | |
− | + | तर्क-ए-उल्फत भी नहीं कर सकते | |
− | + | साथ देने से भी माज़ूर हैं दोस्त | |
− | + | गुफ्तगू के लिए उनवां भी नहीं | |
− | + | बात करने पे भी मजबूर हैं दोस्त | |
− | + | यह चिराग अपने लिए रहने दे | |
− | + | तेरी रातें भी तो बे-नूर हैं दोस्त | |
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+ | सभी पज़मुर्दा हैं महफ़िल में शकेब | ||
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22:54, 17 सितम्बर 2009 का अवतरण
सप्ताह की कविता | शीर्षक: पास रह के भी बोहत दूर हैं दोस्त रचनाकार: शकेब जलाली |
पास रह के भी बोहत दूर हैं दोस्त अपने हालात से मजबूर हैं दोस्त तर्क-ए-उल्फत भी नहीं कर सकते साथ देने से भी माज़ूर हैं दोस्त गुफ्तगू के लिए उनवां भी नहीं बात करने पे भी मजबूर हैं दोस्त यह चिराग अपने लिए रहने दे तेरी रातें भी तो बे-नूर हैं दोस्त सभी पज़मुर्दा हैं महफ़िल में शकेब मैं परेशान हूँ, रंजूर हैं दोस्त