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लम्हा दर लम्हा
बीत रही है जिंदगानी
सांसो के आवागमन से
मिले इसको रवानी
यूं ही साँसों की हलचल में
न जाने ...
कैसे तुम ज़िंदगी में आए
हवा के झोंको में बसे
मेरी हर धड़कन में
और नस -नस में समाये ..
बने वजह यूँ मेरे जीने की
जैसे भटके मुसाफिर को...
मिले कोई मंजिल का निशाँ
वक्त से कटे लम्हे को ...
फ़िर से मिले पनाह
और किसी भटकती रूह को
ख्यालो का तस्वुर दिख जाए ..
पर ....
जीने के लिए जरुरी है
साँसों का बाहर जाना
अब ...
सोच में है मेरा दिल
कैसे रूह में बसी साँसों से
तुम्हे मैं निकालूं
कैसे जीना है तुम बिन
इस सवाल का उत्तर कहाँ से पा लूँ ?