"चल रही उसकी कुदाली / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’" के अवतरणों में अंतर
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हाथ हैं दोनों सधे-से | हाथ हैं दोनों सधे-से | ||
गीत प्राणों के रूँधे-से | गीत प्राणों के रूँधे-से | ||
− | + | और उसकी मूठ में, विश्वास | |
जीवन के बँधे-से | जीवन के बँधे-से | ||
− | धकधकाती | + | धकधकाती धरणि थर-थर |
उगलता अंगार अम्बर | उगलता अंगार अम्बर | ||
भुन रहे तलुवे, तपस्वी-सा | भुन रहे तलुवे, तपस्वी-सा | ||
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जल रहा संसार धू-धू | जल रहा संसार धू-धू | ||
− | कर रहा वह वार कह " | + | कर रहा वह वार कह "हूँ" |
साथ में समवेदना के | साथ में समवेदना के | ||
स्वेद-कण पड़ते कभी चू | स्वेद-कण पड़ते कभी चू | ||
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लहलहाते दूर तरू-गण | लहलहाते दूर तरू-गण | ||
− | ले रहे आश्रय | + | ले रहे आश्रय पथिक जन |
सभ्य शिष्ट समाज खस की | सभ्य शिष्ट समाज खस की | ||
मधुरिमा में हैं मगन मन | मधुरिमा में हैं मगन मन | ||
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किस शुभाशा के सहारे? | किस शुभाशा के सहारे? | ||
− | किस | + | किस सुवर्ण् भविष्य के हित |
यह जवानी बेच डाली? | यह जवानी बेच डाली? | ||
चल रही उसकी कुदाली | चल रही उसकी कुदाली | ||
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(४) | (४) | ||
− | शांत | + | शांत सुस्थिर हो गया वह |
क्या स्वयं में खो गया वह | क्या स्वयं में खो गया वह | ||
हाँफ कर फिर पोंछ मस्तक | हाँफ कर फिर पोंछ मस्तक | ||
पंक्ति 60: | पंक्ति 60: | ||
आ रही वह खोल झोंटा | आ रही वह खोल झोंटा | ||
एक पुटली, एक लोटा | एक पुटली, एक लोटा | ||
− | + | थूँक सुरती पोंछ डाला | |
− | + | शीघ्र अपना होंठ मोठा | |
एक क्षण पिचके कपोलों में | एक क्षण पिचके कपोलों में | ||
पंक्ति 90: | पंक्ति 90: | ||
भूख से, कह बड़बड़ाई | भूख से, कह बड़बड़ाई | ||
− | हँस दिया दे एक | + | हँस दिया दे एक हूँठा |
थी बनावट, था न रूठा | थी बनावट, था न रूठा | ||
याद आई काम की, पकड़ा | याद आई काम की, पकड़ा | ||
पंक्ति 96: | पंक्ति 96: | ||
खप्प-खप चलने लगी | खप्प-खप चलने लगी | ||
− | चिर- | + | चिर-संगिनी की होड़ वाली |
चल रही उसकी कुदाली | चल रही उसकी कुदाली | ||
पंक्ति 109: | पंक्ति 109: | ||
खोदता सारी धरा जो | खोदता सारी धरा जो | ||
बाहुबल से कर रहा है | बाहुबल से कर रहा है | ||
− | इस | + | इस धरणि को उवर्रा जो |
लाल आँखें, खून पानी | लाल आँखें, खून पानी | ||
यह प्रलय की ही निशानी | यह प्रलय की ही निशानी | ||
पंक्ति 116: | पंक्ति 116: | ||
क्या गया वह जान | क्या गया वह जान | ||
− | शोषक- | + | शोषक-वर्ग की करतूत काली |
चल रही उसकी कुदाली | चल रही उसकी कुदाली | ||
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19:19, 18 सितम्बर 2009 का अवतरण
हाथ हैं दोनों सधे-से
गीत प्राणों के रूँधे-से
और उसकी मूठ में, विश्वास
जीवन के बँधे-से
धकधकाती धरणि थर-थर
उगलता अंगार अम्बर
भुन रहे तलुवे, तपस्वी-सा
खड़ा वह आज तनकर
शून्य-सा मन, चूर है तन
पर न जाता वार खाली
चल रही उसकी कुदाली
(२)
वह सुखाता खून पर-हित
वाह रे साहस अपिरिमत
युगयुगों से वह खड़ा है
विश्व-वैभव से अपिरिचत
जल रहा संसार धू-धू
कर रहा वह वार कह "हूँ"
साथ में समवेदना के
स्वेद-कण पड़ते कभी चू
कौन-सा लालच? धरा की
शुष्क छाती फाड़ डाली
चल रही उसकी कुदाली
(३)
लहलहाते दूर तरू-गण
ले रहे आश्रय पथिक जन
सभ्य शिष्ट समाज खस की
मधुरिमा में हैं मगन मन
सब सरसता रख किनारे
भीम श्याम शरीर धारे
खोदता तिल-तिल धरा वह
किस शुभाशा के सहारे?
किस सुवर्ण् भविष्य के हित
यह जवानी बेच डाली?
चल रही उसकी कुदाली
(४)
शांत सुस्थिर हो गया वह
क्या स्वयं में खो गया वह
हाँफ कर फिर पोंछ मस्तक
एकटक-सा रह गया वह
आ रही वह खोल झोंटा
एक पुटली, एक लोटा
थूँक सुरती पोंछ डाला
शीघ्र अपना होंठ मोठा
एक क्षण पिचके कपोलों में
गई कुछ दौड़ लाली
चल रही उसकी कुदाली
(५)
बैठ जा तू क्यों खड़ी है
क्यों नज़र तेरी गड़ी है
आह सुखिया, आज की रोटी
बनी मीठी बड़ी है
क्या मिलाया सत्य कह री?
बोल क्या हो गई बहरी?
देखना, भगवान चाहेगा
उगेगी खूब जुन्हरी
फिर मिला हम नोन-मिरची
भर सकेंगे पेट खाली
चल रही उसकी कुदाली
(६)
आँख उसने भी उठाई
कुछ तनी, कुछ मुसकराई
रो रहा होगा लखनवा
भूख से, कह बड़बड़ाई
हँस दिया दे एक हूँठा
थी बनावट, था न रूठा
याद आई काम की, पकड़ा
कुदाली, काष्ठ-मूठा
खप्प-खप चलने लगी
चिर-संगिनी की होड़ वाली
चल रही उसकी कुदाली
(७)
भूमि से रण ठन गया है
वक्ष उसका तन गया है
सोचता मैं, देव अथवा
यन्त्र मानव बन गया है
शक्ति पर सोचो ज़रा तो
खोदता सारी धरा जो
बाहुबल से कर रहा है
इस धरणि को उवर्रा जो
लाल आँखें, खून पानी
यह प्रलय की ही निशानी
नेत्र अपना तीसरा क्या
खोलने की आज ठानी
क्या गया वह जान
शोषक-वर्ग की करतूत काली
चल रही उसकी कुदाली