"मुर्झाया फूल / महादेवी वर्मा" के अवतरणों में अंतर
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स्निग्ध किरणें चन्द्र की- | स्निग्ध किरणें चन्द्र की- | ||
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प्रात बरसाता नहीं। | प्रात बरसाता नहीं। | ||
+ | जिस पवन ने अंक में- | ||
+ | ले प्यार था तुझको किया, | ||
+ | तीव्र झोंके से सुला- | ||
+ | उसने तुझे भू पर दिया। | ||
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+ | कर दिया मधु और सौरभ | ||
+ | दान सारा एक दिन, | ||
+ | किन्तु रोता कौन है | ||
+ | तेरे लिए दीनी सुमन? | ||
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+ | मत व्यथित हो फूल! किसको | ||
+ | सुख दिया संसार ने? | ||
+ | स्वार्थमय सबको बनाया- | ||
+ | है यहाँ करतार ने। | ||
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+ | विश्व में हे फूल! तू- | ||
+ | सबके हृदय भाता रहा! | ||
+ | दान कर सर्वस्व फिर भी | ||
+ | हाय हर्षाता रहा! | ||
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+ | जब न तेरी ही दशा पर | ||
+ | दुख हुआ संसार को, | ||
+ | कौन रोयेगा सुमन! | ||
+ | हमसे मनुज नि:सार को? | ||
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02:06, 21 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
था कली के रूप शैशव-
में अहो सूखे सुमन,
मुस्कराता था, खिलाती
अंक में तुझको पवन !
खिल गया जब पूर्ण तू-
मंजुल सुकोमल पुष्पवर,
लुब्ध मधु के हेतु मँडराते
लगे आने भ्रमर !
स्निग्ध किरणें चन्द्र की-
तुझको हँसाती थीं सदा,
रात तुझ पर वारती थी
मोतियों की सम्पदा !
लोरियाँ गाकर मधुप
निद्रा विवश करते तुझे,
यत्न माली का रहा-
आनन्द से भरता तुझे।
कर रहा अठखेलियाँ-
इतरा सदा उद्यान में,
अन्त का यह दृश्य आया-
था कभी क्या ध्यान में।
सो रहा अब तू धरा पर-
शुष्क बिखराया हुआ,
गन्ध कोमलता नहीं
मुख मंजु मुरझाया हुआ।
आज तुझको देखकर
चाहक भ्रमर घाता नहीं,
लाल अपना राग तुझपर
प्रात बरसाता नहीं।
जिस पवन ने अंक में-
ले प्यार था तुझको किया,
तीव्र झोंके से सुला-
उसने तुझे भू पर दिया।
कर दिया मधु और सौरभ
दान सारा एक दिन,
किन्तु रोता कौन है
तेरे लिए दीनी सुमन?
मत व्यथित हो फूल! किसको
सुख दिया संसार ने?
स्वार्थमय सबको बनाया-
है यहाँ करतार ने।
विश्व में हे फूल! तू-
सबके हृदय भाता रहा!
दान कर सर्वस्व फिर भी
हाय हर्षाता रहा!
जब न तेरी ही दशा पर
दुख हुआ संसार को,
कौन रोयेगा सुमन!
हमसे मनुज नि:सार को?