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पहली बरखा का सौंधापन | पहली बरखा का सौंधापन |
13:38, 22 सितम्बर 2009 का अवतरण
पहली बरखा का सौंधापन
महक उठा मेरा वातायन।
सूने आकाशों को छूकर ख़ाली-ख़ाली लौटी आँखें
अब पूरे बादल भरती है जामुनिया जिनकी पोशाकें
कैसे तोड़ रही है धरती
अपने से अपना अनुशासन!
ऋतुओं की ऋतु आने पर कौन नहीं जो फिर से गाता
मैं गाता तो कौन गज़ब है पूरा विंध्याचल चिल्लाता
क्षितिज-क्षितिज से दिशा-दिशा से
सप्त स्वरांबुधि के अभिवादन।
अंतरिक्ष में नाद मूर्त है, धरती पर अँखुओं का नर्तन
मैदानों में रंग-शक्तियाँ करती गुप्त क्षणों का अंकन
प्रकृति-पुरुष के अश्व-वेग में
महाकाम के व्यक्तोन्मादन।
पहली बरखा का सौंधापन
महक उठा मेरा वातायन।