भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"साँचा:KKPoemOfTheWeek" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td> | <tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td> | ||
<td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td> | <td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td> | ||
− | <td> '''शीर्षक: ''' | + | <td> '''शीर्षक: '''नया राष्ट्रगीत<br> |
− | '''रचनाकार:''' [[ | + | '''रचनाकार:''' [[श्रीकान्त जोशी ]]</td> |
</tr> | </tr> | ||
</table> | </table> | ||
पंक्ति 13: | पंक्ति 13: | ||
<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none"> | <pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none"> | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | |||
− | |||
− | + | रोटी रोटी रोटी | |
− | + | बड़ी उम्र होती है जिसकी ख़ातिर छोटी-छोटी | |
+ | रोटी रोटी रोटी। | ||
+ | जिनके हाथों में झण्डे हैं उनकी नीयत खोटी | ||
+ | रोटी रोटी रोटी। | ||
− | + | अपने घर में रखें करोड़ों बाहर दिखें भिखारी | |
− | मैं | + | सहसा नहीं समझ में आती ऐसों की मक्कारी |
+ | उधर करोड़ों जुटा न पाते तन पर एक लंगोटी | ||
+ | रोटी रोटी रोटी। | ||
+ | |||
+ | शोर बहुत है जन या हरिजन सब मरते हैं उनसे | ||
+ | महाजनियों की छुपी हुक़ूमत में सब झुलसे-झुलसे | ||
+ | चेहरे पर तह बेशरमी की कितनी मोटी-मोटी! | ||
+ | रोटी रोटी रोटी। | ||
+ | |||
+ | पैसों के बल टिका हुआ है प्रजातंत्र का खंबा | ||
+ | बिका हुआ ईश्वर रच सकता यह मनहूस अचंभा | ||
+ | जमा रहे हैं बेटा-बेटी, दौलत सत्ता-गोटी | ||
+ | रोटी रोटी रोटी। | ||
+ | |||
+ | बर्फ़ हिमालय की चोटी की मुझको दिखती काली | ||
+ | काली का खप्पर ख़ाली है नाच रही दे ताली | ||
+ | मैं देता हूँ, वो ले आकर, मेरी बोटी-बोटी | ||
+ | रोटी रोटी रोटी। | ||
+ | बड़ी उम्र होती है जिसकी ख़ातिर छोटी-छोटी | ||
+ | जिनके हाथों में झण्डे हैं उनकी नीयत खोटी | ||
+ | रोटी रोटी रोटी। | ||
</pre> | </pre> | ||
<!----BOX CONTENT ENDS------> | <!----BOX CONTENT ENDS------> | ||
</div><div class='boxbottom'><div></div></div></div> | </div><div class='boxbottom'><div></div></div></div> |
13:50, 22 सितम्बर 2009 का अवतरण
सप्ताह की कविता | शीर्षक: नया राष्ट्रगीत रचनाकार: श्रीकान्त जोशी |
रोटी रोटी रोटी बड़ी उम्र होती है जिसकी ख़ातिर छोटी-छोटी रोटी रोटी रोटी। जिनके हाथों में झण्डे हैं उनकी नीयत खोटी रोटी रोटी रोटी। अपने घर में रखें करोड़ों बाहर दिखें भिखारी सहसा नहीं समझ में आती ऐसों की मक्कारी उधर करोड़ों जुटा न पाते तन पर एक लंगोटी रोटी रोटी रोटी। शोर बहुत है जन या हरिजन सब मरते हैं उनसे महाजनियों की छुपी हुक़ूमत में सब झुलसे-झुलसे चेहरे पर तह बेशरमी की कितनी मोटी-मोटी! रोटी रोटी रोटी। पैसों के बल टिका हुआ है प्रजातंत्र का खंबा बिका हुआ ईश्वर रच सकता यह मनहूस अचंभा जमा रहे हैं बेटा-बेटी, दौलत सत्ता-गोटी रोटी रोटी रोटी। बर्फ़ हिमालय की चोटी की मुझको दिखती काली काली का खप्पर ख़ाली है नाच रही दे ताली मैं देता हूँ, वो ले आकर, मेरी बोटी-बोटी रोटी रोटी रोटी। बड़ी उम्र होती है जिसकी ख़ातिर छोटी-छोटी जिनके हाथों में झण्डे हैं उनकी नीयत खोटी रोटी रोटी रोटी।