"केटोली / संध्या गुप्ता" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संध्या गुप्ता }} <poem> त्रिकुटि पहाड़ की तराई में ब...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=संध्या गुप्ता | |रचनाकार=संध्या गुप्ता | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatKavita}} | |
<poem> | <poem> | ||
त्रिकुटि पहाड़ की तराई में बसे उस गाँव को | त्रिकुटि पहाड़ की तराई में बसे उस गाँव को |
20:25, 22 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
त्रिकुटि पहाड़ की तराई में बसे उस गाँव को
प्रकृति ने अपने ढंग से सँवारा था और
लोगों ने कुछ अपने ही ढंग से
वहाँ खेत नदी झरने तालाब और वृक्षों के अलावे
लोगों की बसाई कुछ बस्तियाँ भी थीं
जहाँ कुछ मिली -जुली किस्मों के लोगों के अलावे
केवट कहलाये जाने वाले लोग बसते थे
-जिनकी कभी गरिमापूर्ण विरासत थी
जो अब भूगर्भ में समा चुकी थी
इनकी बस्ती में
जिसे वे खुद केटोली (केवट-टोली)
के नाम से पुकारते थे और दूसरे किस्म के लोग
उसे गंदी बस्ती के नाम से जानते थे
-झोपड़ियाँ थीं, घर नहीं
जो साफ-सफाई के बावजूद गंदी रहती थीं
इस गंदी बस्ती में रहनेवाले लोग बेशक गंदे थे!
इनका रहन-सहन गंदा था
इनकी शिक्षा शून्य और दीक्षा वश परम्परा से थी
भाषा के नाम पर इनके पास
निन्यानबे प्रतिशत गालियाँ ही थीं!
ये लोग अपने जीवन का मायने और मकसद
नहीं तलाशते थे
वे क्या हैं ?... और क्यों हैं?...
-ये नहीं जानते थे!
ये जीवन को कुत्ते की तरह दुत्कारते और
कबड्डी की तरह जीते लोग थे!
इनकी अपनी एक अलग दुनिया थी
जिसके सारे कायदे -कानून पेट से शुरू और
पेट ही में खत्म होते थे!
यहाँ खजखजाते हुए बच्चे़ थे और
टिमटिमाते हुए बूढ़े-
भूखे ,नंगे, कुपोषण और बीमारियों के बीच
बच्चे पलते और बूढ़े मर जाते
मर्द जाल बुनते ...मछलियाँ पकड़ते और
औरतें मुढ़ी भूंजतीं
मर्द की कमाई ताड़ी और जुए में जाती
औरत की कमाई से घर चलता
रोज शाम को मर्द ताड़ी के नशे में
झूमते हुए घर आते और
अजीबोग़रीब दृश्यों का सृजन करते!
कभी वे गुदड़ी में बेताज़ बादशाह होते...
कभी अमिताभ... गोविंदा...
कभी पत्नी और बच्चों को पीटते हुए दरिंदे
तो कभी अधिक पी लेने के कारण
रास्ते में पड़े लावारिस लाश की तरह होते!
गौरतलब है कि औरतें इस बस्ती में
गड्ढे के ठहरे हुए पानी में पड़ी
चाँद की परछाईं थीं
पहाड़ से लकड़ियाँ काट कर सर पे रखे
राजधानी एक्सप्रेस से अधिक तेजी से
भागती हुई आती ये औरतें...
धान उसनतीं... बीच सड़क पर बैठ कर सुखातीं...
कूटतीं -पीसतीं...बच्चे पालतीं
मर्दों के हाथों पिटतीं
और उनकी इच्छाओं पर बिछ-बिछ जातीं...
किन्तु सूरज की हर आहट पर चौंक-चौंक
उठतीं ये औरतें...!!
- अपने आप में निराली पर इकलौती नहीं
यह वही बस्ती है दोस्तो !
जहाँ सदियाँ कभी नहीं बदलतीं!!
(केटोली-झारखण्ड स्थित देवघर ज़िले में त्रिकुटि पहाड़ की तराई में बसे गाँव मोहनपुर की एक बस्ती)