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"जंगल में होना चाहती हूँ! / संध्या गुप्ता" के अवतरणों में अंतर
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जानती हूँ मैं जंगल में होने के ख़तरों के बारे में | जानती हूँ मैं जंगल में होने के ख़तरों के बारे में |
20:27, 22 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
जानती हूँ मैं जंगल में होने के ख़तरों के बारे में
बीहड़ों और हिंस्र पशुओं के बीच से गुज़रने की
कल्पना मात्र भी
किस क़दर ख़ौफ़नाक़ है!!
और जंगल की धधकती आग!
किसे नहीं जलाकर राख कर देती वो तो!!
जंगल में होने का मतलब है
हर पल जान हथेली पर रखना!
...मैं ख़तरे उठाना चाहती हूँ ...
...जंगल में होने के सारे ख़तरे क्योंकि
मुझे भरोसा है जंगल के न्याय पर पूरा का पूरा
और वहाँ भरोसों की हत्या नहीं होती
आख़िरकार जंगल मेरा अपना है
सबसे पुराना साथी !