"कवि की ऊष्मा / अनिल जनविजय" के अवतरणों में अंतर
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'''(एक संस्मरण) | '''(एक संस्मरण) | ||
दिसम्बर की एक बेहद सर्द शाम | दिसम्बर की एक बेहद सर्द शाम | ||
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हापुड़ से लौट रहा हूँ दिल्ली | हापुड़ से लौट रहा हूँ दिल्ली | ||
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बाबा नागार्जुन के साथ | बाबा नागार्जुन के साथ | ||
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बहुत थोड़े से लोग हैं रेल के डिब्बे में | बहुत थोड़े से लोग हैं रेल के डिब्बे में | ||
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अपने-अपने में सिकुड़े | अपने-अपने में सिकुड़े | ||
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खाँसते-खखारते | खाँसते-खखारते | ||
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टूटी खिड़कियों की दरारों से | टूटी खिड़कियों की दरारों से | ||
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भीतर चले आते हैं | भीतर चले आते हैं | ||
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ठंडी हवा के झोंके | ठंडी हवा के झोंके | ||
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चीरते चले जाते हैं हड्डियों को | चीरते चले जाते हैं हड्डियों को | ||
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सिसकारियाँ भरकर रह जाते हैं मुसाफ़िर | सिसकारियाँ भरकर रह जाते हैं मुसाफ़िर | ||
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अपने में ही और अधिक सिकुड़ जाते हैं | अपने में ही और अधिक सिकुड़ जाते हैं | ||
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अचानक कहने लगते हैं बाबा-- | अचानक कहने लगते हैं बाबा-- | ||
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"माँ की गोद की तरह गर्म है मेरा कम्बल | "माँ की गोद की तरह गर्म है मेरा कम्बल | ||
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बहन के प्यार की तरह ऊष्म | बहन के प्यार की तरह ऊष्म | ||
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इसमें घुसकर बैठते हैं हम | इसमें घुसकर बैठते हैं हम | ||
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जैसे कि बैठे हों घोर सर्द रात में | जैसे कि बैठे हों घोर सर्द रात में | ||
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अलाव के किनारे... | अलाव के किनारे... | ||
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"अलाव की हल्की आँच है कम्बल | "अलाव की हल्की आँच है कम्बल | ||
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कश्मीर की ठंड में कोयले की सिगड़ी है | कश्मीर की ठंड में कोयले की सिगड़ी है | ||
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सर्दियों की ठिठुरती सुबह में | सर्दियों की ठिठुरती सुबह में | ||
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सूरज की गुनगुनी धूप है..." | सूरज की गुनगुनी धूप है..." | ||
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बाबा अपने लाल नर्म कम्बल को | बाबा अपने लाल नर्म कम्बल को | ||
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प्यार से थपथपाते हैं | प्यार से थपथपाते हैं | ||
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जैसे कोई नन्हा बच्चा हो गोद में | जैसे कोई नन्हा बच्चा हो गोद में | ||
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और किलकते हैं-- | और किलकते हैं-- | ||
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" भई, मुनि जिनविजय! | " भई, मुनि जिनविजय! | ||
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मेरी किसी कविता से | मेरी किसी कविता से | ||
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कम नहीं है यह कम्बल | कम नहीं है यह कम्बल | ||
− | |||
सर्दियों की ठंडी रातों में | सर्दियों की ठंडी रातों में | ||
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जब निकलता है यात्राओं पर यह बूढ़ा | जब निकलता है यात्राओं पर यह बूढ़ा | ||
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तो यही कम्बल | तो यही कम्बल | ||
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इन बूढ़ी हड्डियों को अकड़ने से बचाता है | इन बूढ़ी हड्डियों को अकड़ने से बचाता है | ||
− | |||
रक्त को रखता है गर्म | रक्त को रखता है गर्म | ||
− | |||
उँगलियों को गतिशील | उँगलियों को गतिशील | ||
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ताकि मैं लिख सकूँ कविता... | ताकि मैं लिख सकूँ कविता... | ||
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इसमें घुसकर मैं पाता हूँ आराम | इसमें घुसकर मैं पाता हूँ आराम | ||
− | |||
मानो बैठा हूँ अपनी युवा पत्नी के साथ | मानो बैठा हूँ अपनी युवा पत्नी के साथ | ||
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पत्नी का आगोश है कम्बल | पत्नी का आगोश है कम्बल | ||
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पत्नी के बाद अब यह कम्बल ही | पत्नी के बाद अब यह कम्बल ही | ||
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मेरे सुख-दुख का साथी है सच्चा..." | मेरे सुख-दुख का साथी है सच्चा..." | ||
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इतना कहते-कहते | इतना कहते-कहते | ||
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अचानक उठ खड़े होते हैं बाबा | अचानक उठ खड़े होते हैं बाबा | ||
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अपने शरीर से झटकते हैं कम्बल | अपने शरीर से झटकते हैं कम्बल | ||
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और ओढ़ा देते हैं उसे | और ओढ़ा देते हैं उसे | ||
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सामने की सीट पर | सामने की सीट पर | ||
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सिकुड़कर लेटी | सिकुड़कर लेटी | ||
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एक युवा मज़दूरिन माँ को | एक युवा मज़दूरिन माँ को | ||
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जिसकी छाती से चिपका है नवजात-शिशु | जिसकी छाती से चिपका है नवजात-शिशु | ||
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फिर ख़ुद सिकुड़कर बैठ जाते हैं बाबा | फिर ख़ुद सिकुड़कर बैठ जाते हैं बाबा | ||
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बगल में घुसाकर अपने हाथ | बगल में घुसाकर अपने हाथ | ||
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बेहद सहजता के साथ | बेहद सहजता के साथ | ||
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मस्त हैं अपने इस करतब पर | मस्त हैं अपने इस करतब पर | ||
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आँखों में स्नेहपूर्ण चमक है | आँखों में स्नेहपूर्ण चमक है | ||
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एक खुशी, एक उल्लास, उत्साह है, सुख है | एक खुशी, एक उल्लास, उत्साह है, सुख है | ||
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मोतियों की तरह चमकते | मोतियों की तरह चमकते | ||
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दो आँसू हैं | दो आँसू हैं | ||
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बेहद अपनापन है | बेहद अपनापन है | ||
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बाबा की उन गीली आँखों में | बाबा की उन गीली आँखों में | ||
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1978 में रचित | 1978 में रचित | ||
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20:37, 22 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
(एक संस्मरण)
दिसम्बर की एक बेहद सर्द शाम
हापुड़ से लौट रहा हूँ दिल्ली
बाबा नागार्जुन के साथ
बहुत थोड़े से लोग हैं रेल के डिब्बे में
अपने-अपने में सिकुड़े
खाँसते-खखारते
टूटी खिड़कियों की दरारों से
भीतर चले आते हैं
ठंडी हवा के झोंके
चीरते चले जाते हैं हड्डियों को
सिसकारियाँ भरकर रह जाते हैं मुसाफ़िर
अपने में ही और अधिक सिकुड़ जाते हैं
अचानक कहने लगते हैं बाबा--
"माँ की गोद की तरह गर्म है मेरा कम्बल
बहन के प्यार की तरह ऊष्म
इसमें घुसकर बैठते हैं हम
जैसे कि बैठे हों घोर सर्द रात में
अलाव के किनारे...
"अलाव की हल्की आँच है कम्बल
कश्मीर की ठंड में कोयले की सिगड़ी है
सर्दियों की ठिठुरती सुबह में
सूरज की गुनगुनी धूप है..."
बाबा अपने लाल नर्म कम्बल को
प्यार से थपथपाते हैं
जैसे कोई नन्हा बच्चा हो गोद में
और किलकते हैं--
" भई, मुनि जिनविजय!
मेरी किसी कविता से
कम नहीं है यह कम्बल
सर्दियों की ठंडी रातों में
जब निकलता है यात्राओं पर यह बूढ़ा
तो यही कम्बल
इन बूढ़ी हड्डियों को अकड़ने से बचाता है
रक्त को रखता है गर्म
उँगलियों को गतिशील
ताकि मैं लिख सकूँ कविता...
इसमें घुसकर मैं पाता हूँ आराम
मानो बैठा हूँ अपनी युवा पत्नी के साथ
पत्नी का आगोश है कम्बल
पत्नी के बाद अब यह कम्बल ही
मेरे सुख-दुख का साथी है सच्चा..."
इतना कहते-कहते
अचानक उठ खड़े होते हैं बाबा
अपने शरीर से झटकते हैं कम्बल
और ओढ़ा देते हैं उसे
सामने की सीट पर
सिकुड़कर लेटी
एक युवा मज़दूरिन माँ को
जिसकी छाती से चिपका है नवजात-शिशु
फिर ख़ुद सिकुड़कर बैठ जाते हैं बाबा
बगल में घुसाकर अपने हाथ
बेहद सहजता के साथ
मस्त हैं अपने इस करतब पर
आँखों में स्नेहपूर्ण चमक है
एक खुशी, एक उल्लास, उत्साह है, सुख है
मोतियों की तरह चमकते
दो आँसू हैं
बेहद अपनापन है
बाबा की उन गीली आँखों में
1978 में रचित