भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"खेजड़ी / नंद भारद्वाज" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नंद भारद्वाज |संग्रह= }} <Poem> बालू रेत की भीगी तहों ...)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=नंद भारद्वाज
+
|रचनाकार=नंद भारद्वाज  
|संग्रह=
+
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita‎}}
 
<Poem>
 
<Poem>
 
बालू रेत की भीगी तहों में  
 
बालू रेत की भीगी तहों में  

20:59, 22 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण

बालू रेत की भीगी तहों में
एक बार जब बन जाते हैं उगने के आसार
वह उठ खड़ी होती है काल के
                  अन्तहीन विस्तार में,

रोप कर देख लो उसे किसी भी ठाँव
वह साँस के आख़िरी सिरे तक
बनी रहेगी सजीव उसी ठौर -
अपनी बेतरतीब-सी जड़ों के सहारे
वह थाम लेगी मिट्टी की सामर्थ्य
उतरती चली जाएगी परतों में
                 सन्धियों के पार
सूख नहीं जाएगी नमी के शोक में !

मौसम की पहली बारिश के बाद
जैसे उजाड़ में उग आती हैं
किसिम-किसिम की घास, लताएँ
पौध कंटीली झाड़ियाँ
वह अवरोध नहीं बनती किसी आरोह में,

जिन काँटेदार पौधों को
करीने से सजाकर बिठाया जाता है
घरों की सीढ़ियों पर शान से
उनसे कोई अदावत नहीं रखती
अपनी दावेदारी के नाम पर -
वह इतमीनान से बढ़ती है
उमगती पत्तियों में शान्त अन्तर्लीन ।

क्यारियों में सहेज कर उगाई जा सकती है
फूलों की अनगिनत प्रजातियाँ
नुमाइश के नाम पर पनपाए जा सकते हैं
गमलों में भाँति-भाँति के बौने बन्दी पेड़
उनसे रंच-मात्र भी रश्क नहीं रखती
                     यह देशी पौध -

उसे पनपने के लिए
नहीं होती सजीले गमलों की दरकार
उसे तो खुले खेत की गोद -
सीमा पर थोड़ी-सी निरापद ठौर
         सलामत चाहिए शुरुआत में !

और बस इतना-सा सद्भाव -
कि अकारण कोई रौंद नहीं डाले
उन उगते दिनों में वह नन्हा आकार
    कोई काट डाले निराई के फेर में,
अपनी ज़मीन से बेदखल
कहीं नहीं पनपेगी इसकी साख
अनचाहे बंधन में बंध कर
नहीं जिएगी खेजड़ी !