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"कभी पाबंदियों से छुट के भी दम घुटने लगता है / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर

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दरो-दीवार हो जिनमें वही ज़िन्दान नहीं होता<BR><BR>
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हमारा ये तजुर्बा कि खुश होना मोहब्बत में<BR>
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कभी पाबन्दियों से छुट के भी दम घुटने लगता है
कभी मुश्किल नहीं होता, कभी आसान नहीं होता<BR><BR>
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दरो-दीवार हो जिनमें वही ज़िन्दाँ नहीं होता
बज़ा है ज़ब्त भी लेकिन मोहब्बत में कभी रो ले<BR>
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दबाने के लिये हर दर्द-ओ-नादान नहीं होता<BR><BR>
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हमारा ये तजुर्बा है कि ख़ुश होना मोहब्बत में
यकीं लायें तो क्या लायें, जो शक लायें तो क्या लायें<BR>
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कभी मुश्किल नहीं होता, कभी आसाँ नहीं होता
कि बातों से तेरी सच झूठ का इम्कां नहीं होता<BR><BR>
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दबाने के लिये हर दर्द ऐ नादाँ !  नहीं होता
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यकीं लायें तो क्या लायें, जो शक लायें तो क्या लायें
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कि बातों से तेरी सच झूठ का इम्काँ नहीं होता
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16:18, 23 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण

कभी पाबन्दियों से छुट के भी दम घुटने लगता है
दरो-दीवार हो जिनमें वही ज़िन्दाँ नहीं होता

हमारा ये तजुर्बा है कि ख़ुश होना मोहब्बत में
कभी मुश्किल नहीं होता, कभी आसाँ नहीं होता

बज़ा है ज़ब्त भी लेकिन मोहब्बत में कभी रो ले
दबाने के लिये हर दर्द ऐ नादाँ ! नहीं होता

यकीं लायें तो क्या लायें, जो शक लायें तो क्या लायें
कि बातों से तेरी सच झूठ का इम्काँ नहीं होता