भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे / अहसान बिन 'दानिश'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatGhazal}} | |
<poem> | <poem> | ||
यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे | यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे | ||
− | साथ चल | + | साथ चल मौज़-ए-सबा हो जैसे |
लोग यूँ देख कर हँस देते हैं | लोग यूँ देख कर हँस देते हैं |
21:06, 24 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
साथ चल मौज़-ए-सबा हो जैसे
लोग यूँ देख कर हँस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे
इश्क़ को शिर्क की हद तक न बड़ा
यूँ न मिल हमसे ख़ुदा हो जैसे
मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ
मुझपे एहसान किया हो जैसे
ऐसे अंजान बने बैठे हो
तुम को कुछ भी न पता हो जैसे
हिचकियाँ रात को आती ही रहीं
तू ने फिर याद किया हो जैसे
ज़िन्दगी बीत रही है "दानिश"
एक बेजुर्म सज़ा हो जैसे