"ज़हे-आबो-गिल की ये कीमिया, है चमन की मोजिज़ा-ए-नुमू / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर
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न ख़िज़ाँ है कुछ न बहार कुछ, वही ख़ारो-ख़स, वही रंगो-बू। | न ख़िज़ाँ है कुछ न बहार कुछ, वही ख़ारो-ख़स, वही रंगो-बू। | ||
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कभी पाये-पाये हुये तुझे, कभी खोये-खोये हुये तुझे | कभी पाये-पाये हुये तुझे, कभी खोये-खोये हुये तुझे | ||
कभी बेनयाज़े-तलाश है, कभी इश्क़ मायले-जुस्तजू। | कभी बेनयाज़े-तलाश है, कभी इश्क़ मायले-जुस्तजू। | ||
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+ | न ये भेद हुस्न का खुल सका, न भरम ये इश्क़ का मिट सका | ||
+ | किसी रूप में ये है तू कि मैं, किसी भेस में ये हूँ मैं कि तू। | ||
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+ | ये कहाँ से बज़्मे-ख़याल में उमड़ आयीं चेहरों की नद्दियाँ | ||
+ | कोई महचकाँ, कोई ख़ुरफ़ेशाँ, कोई ज़ोहरावश, कोई शोलारू। | ||
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+ | गहे, बाग़े-हुस्न अदन-अदन, गहे, बाग़े-हुस्न खुतन-ख़ुतन | ||
+ | तबो-ताब रू-ए-नुमू-नुमू, ख़मो-पेच ज़ुल्फ़े-सियाह मू। | ||
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+ | वो अदा-ए-उज्रे-सितम न थी, वो था कोई जादू-ए-सामरी | ||
+ | मुझे आज तक नहीं भूलती, वो निगाहे-नरगिसे-हीलाजू। | ||
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+ | मेरी शाएरी में खिलाये गुल, सरे-नोके-ख़ार चमन-चमन | ||
+ | जो किये ये दावे हरीफ़ ने, रगे-फ़िक्र देने लगी लहू। | ||
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+ | तुझे अहले-दिल की ख़बर नहीं कि जहाँ में गंज लुटा गये | ||
+ | ये गदागराने-दयारे-ग़म, ये कलन्दराने - तही - कदू। | ||
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+ | अब उसी का तकिया ज़माने में, ये सुना है मरजा-ए-खल्क<ref>लोगों की तवज़्ज़ुह की जगह</ref> है | ||
+ | जो ’फ़िराक़’ तेरे लिये फिरा, कभी दर-ब-दर, कभी कू-ब-कू। | ||
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16:17, 27 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
ज़हे-आबो-गिल<ref>जल-धरती को धन्य</ref> की ये कीमिया<ref>रसायन</ref>, है चमन की मोजिज़ा-ए-नुमू<ref>उत्थान का चमत्कार</ref>
न ख़िज़ाँ है कुछ न बहार कुछ, वही ख़ारो-ख़स, वही रंगो-बू।
मेरी शाएरी का ये आईना, करे ऐसे को तेरे रू-ब-रू
जो तेरी ही तरह हो सर-बसर, जो तुझी से मिलता हो मू-ब-मू<ref>हूबहू</ref> ।
इसी सोज़ो-साज़ की मुन्तज़र, थी बहारे-गुलशने-आबरू
तेरे रंग-रंग निशात से, मेरे ग़म की आने लगी है बू।
वो चमन-परस्त भी हैं जिन्हें, ये ख़बर हुई ही न आज तक
कि गुलों की जिससे है परवरिश, रगे-ख़ार में है वही लहू।
हुई ख़त्म सोहबते-मयकशी, यही दाग़ सीनों में रह गया
कि तुलअ होने से रह गये, कई आफ़ताबे-ख़ुमो-सुबू<ref>घड़ा और मधुकलश</ref>।
कई लाख फूलों ने पैरहन सरे-बाग़ हँस के उड़ा दिये
ज़हे-फ़स्ले-गुल वो हवा चली, कि चमन की ले उड़ी आबरू।
जिसे आपने-आप से कहते भी, मुझे आज लाख हिजाब है
वो ज़माना इश्क़ को याद है, मेरा अर्ज़े-ग़म तेरे रू-ब-रू।
तुझे पाके ख़ुद को मैं पाऊँगा , कि तुझी में खोया हुआ हूँ मैं
ये तेरी तलाश है इसलिये, कि मुझे है अपनी ही जुस्तजू।
हुई वारदाते-सहर यहाँ, तो गुलों का सीना धड़क गया
ये चलो कि तेगे़-नसीम<ref>हवा की तलवार</ref> ने कई हाथ उछाल दिया लहू।
मेरे दिल में था कोई जलवागर, वो हो तो कि और कोई मगर
यही ख़ालो-ख़त थे ब-जिन्सही<ref>पूर्णतः, हूबहू</ref>, यही रूप-रंग भी हू-ब-हू।
इधर एक चुप तो हजार चुप, उधर एक कह तो हजार सुन
वो नयाजे-इश्क़ की बेबसी, वो निगाहे-नाज़ के दू-ब-दू<ref>आमने-सामने</ref>।
वही आँख जामे-मये-हया, वही आँख जामे-जहाँनुमा<ref>जगप्रदर्शी कलश</ref>
जो निगाह उठती नहीं कभी, वो निगाह जाती है चार सू।
कभी पाये-पाये हुये तुझे, कभी खोये-खोये हुये तुझे
कभी बेनयाज़े-तलाश है, कभी इश्क़ मायले-जुस्तजू।
न ये भेद हुस्न का खुल सका, न भरम ये इश्क़ का मिट सका
किसी रूप में ये है तू कि मैं, किसी भेस में ये हूँ मैं कि तू।
ये कहाँ से बज़्मे-ख़याल में उमड़ आयीं चेहरों की नद्दियाँ
कोई महचकाँ, कोई ख़ुरफ़ेशाँ, कोई ज़ोहरावश, कोई शोलारू।
गहे, बाग़े-हुस्न अदन-अदन, गहे, बाग़े-हुस्न खुतन-ख़ुतन
तबो-ताब रू-ए-नुमू-नुमू, ख़मो-पेच ज़ुल्फ़े-सियाह मू।
वो अदा-ए-उज्रे-सितम न थी, वो था कोई जादू-ए-सामरी
मुझे आज तक नहीं भूलती, वो निगाहे-नरगिसे-हीलाजू।
मेरी शाएरी में खिलाये गुल, सरे-नोके-ख़ार चमन-चमन
जो किये ये दावे हरीफ़ ने, रगे-फ़िक्र देने लगी लहू।
तुझे अहले-दिल की ख़बर नहीं कि जहाँ में गंज लुटा गये
ये गदागराने-दयारे-ग़म, ये कलन्दराने - तही - कदू।
अब उसी का तकिया ज़माने में, ये सुना है मरजा-ए-खल्क<ref>लोगों की तवज़्ज़ुह की जगह</ref> है
जो ’फ़िराक़’ तेरे लिये फिरा, कभी दर-ब-दर, कभी कू-ब-कू।