भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मैंने मान ली तब हार / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन |संग्रह=एकांत-संगीत / हरिवंशरा...)
 
पंक्ति 17: पंक्ति 17:
 
मैंने मान ली तब हार!
 
मैंने मान ली तब हार!
  
 
+
विश्व ने कंचन दिखाकर
 +
कर लिया अधिकार उसपर,
 +
मैं जिसे निज प्राण देकर भी न पाया जीत,
 +
मैंने मान ली तब हार!
 
</poem>
 
</poem>

09:16, 28 सितम्बर 2009 का अवतरण

मैंने मान ली तब हार!

पूर्ण कर विश्वास जिसपर,
हाथ मैं जिसका पकड़कर,
था चला, जब शत्रु बन बैठा हृदय का गीत,
मैंने मान ली तब हार!

विश्व ने बातें चतुर कर,
चित्त जब उसका लिया हर,
मैं रिझा जिसको न पाया गा सरल मधुगीत,
मैंने मान ली तब हार!

विश्व ने कंचन दिखाकर
कर लिया अधिकार उसपर,
मैं जिसे निज प्राण देकर भी न पाया जीत,
मैंने मान ली तब हार!