"निठारी के मासूम भूतों ने पूछा / राजीव रंजन प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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14:56, 30 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
वो चाकलेट
जब नाखून भरे हाथ बन जाती होगी
तो मासूम छौने सी, नन्ही सी, गुडिया सी
छोटी सी बिल्ली के बच्चे सी बच्ची
सहसा सहम कर, रो कर, दुबक कर
कहती तो होगी 'बुरे वाले अंकल'
मेरे पास है और भी एसी टॉफी
मुझे दो ना माफी, जाने भी दो ना..
मुझे छोड दो, मेरी गुडिया भी लो ना
तितली भी है, मोर का पंख भी है
सभी तुमको दूंगी, कभी फिर न लूंगी
मुझे छोड दो, मुझको एसे न मारो
ये कपडे नये हैं, इन्हें मत उतारो
मैं मम्मी से, पापा से सबसे कहूँगी
मगर छोड दोगे तो चुप ही रहूंगी..
क्या आसमा तब भी पत्थर ही होगा
क्यों इस धरा के न टुकडे हुए फिर?
पिशाचों नें जब उस गिलहरी को नोचा
तो क्यों शेष का फन न काँपा?
न फूटे कहीं ज्वाल के मुख भला क्यों?
गर्दन के, हाँथों के, पैरों के टुकडे
नाले में जब वो बहा कर हटा था
तो ए नीली छतरी लगा कर खुदा बन
बैठा है तू, तेरा कुछ भी घटा था
तू मेरी दृष्टि में सबसे भिखारी
दिया क्या धरा को ये तूनें 'निठारी'?
ये कैसी है दुनियाँ, कहाँ आ गये हम?
कहाँ बढ गये हम, कि क्या पा गये हम?
न आशा की बातें करो कामचोरों
'लुक्क्ड', 'उचक्को', 'युवा', तुम पे थू है
तुम्ही से तो उठती हर ओर बू है
अरे 'कर्णधारो' मरो,
चुल्लुओं भर पानीं में डूबो
वेलेंटाईनों के पहलू में दुबको,
तरक्की करो तुम
शरम को छुपा दो,
बहनों को अमरीकी कपडे दिला दो
बढो शान से, चाँद पर घर बनाओ
नहीं कोई तुमसे ये पूछेगा कायर
कि चेहरे में इतना सफेदा लगा कर
अपना ही चेहरा छुपा क्यों रहे हो
उठा कर के बाईक 'पतुरिया' घुमाओ
समाचार देखो तो चैनल बदल दो
मगर एक दिन पाँव के नीचे धरती
गर साथ छोडेगी तो क्या करोगे?
इतिहास पूछेगा तो क्या गडोगे?
तुम्हारी ही पहचान है ये पिटारी
उसी देश के हो है जिसमें निठारी...
भैया थे, पापा थे, नाना थे, चाचा थे
कुछ भी नहीं थे तो क्या कुछ नहीं थे
बदले हुए दौर में हर तरफ हम
पिसे हैं तो क्या आपको अजनबी थे?
नहीं सुन सके क्यों 'बचाओ' 'बचाओ'
निठारी के मासूम भूतों नें पूछा
अरे बेशरम कर्णधारों बताओ..