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वो बात / राजीव रंजन प्रसाद

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'''वो बात''' <br />{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद |संग्रह=}}{{KKCatKavita}}<br /poem>वो बात<br />जो एक नदी बन गयी<br />गईक्या तुमने कही थी?<br />घमंड से आकाश की फुनगी को<br />एक टक ताक कर तुम<br />पत्थर की शिलाओं को परिभाषा कहती हो<br />हरी भरी उँची सी, बेढब पहाडी...<br /><br />कितना विनम्र था वो सरिता का पानी<br />पैरों पर गिर कर और गिड़गिड़ा कर<br />निर्झर हो गया था..<br />.तुम कब नदी की राह में<br />गोल-मोल हो कर बिछ गये<br />गएक्या याद है तुम्हें?<br />धीरे-धीरे रे मना<br />धीरे सब कुछ होय<br />चिड़िया चुग गयी खेत<br />अब काहे को रोय?<br />अहसास के इस खेल में<br />जब उसकी पारी हो गयी<br />गईसरिता आरी हो गयीगई...<br /><br />दो फांक हो गये गए हो<br />बह-बह के रेत हो कर<br />उस राह में बिछे हो, कालिन्द की मानिन्द<br />जिस पर कदम रखे गुजरा किये किए है<br />वो याद जो एक सदी बन गयी<br />गईवो बात जो एक नदी बन गयीगई...<br /poem>
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