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<poem>
घेर अंग-अंग को
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की,
ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल
घेर निज तरु-तन।
घेर अंगखिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के,प्रथम वसन्त में गुच्छ-अंग को<br>गुच्छ।लहरी तरंग वह दृगों को रँग गई प्रथम तारुण्य कीप्रणय-रश्मि, <br>-ज्योतिर्मीयिलताचूर्ण हो विच्छुरितविश्व-सी हुई मैं तत्काल<br>ऐश्वर्य को स्फुरित करती रहीबहु रंग-भाव भरशिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के,घेर निज तरुकिरण-तन।<br><br>सम्पात से।
खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के, <br>दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्योंप्रथम वसन्त में गुच्छविचरते मञ्जु-गुच्छ।<br>मुखदृगों को रँग गयी प्रथम प्रणयगुञ्ज-रश्मिमृदु अलि-<br>पुञ्जचूर्ण हो विच्छुरित<br>मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे।विश्वप्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही<br>बहु रंगभरते अन्तर पुलकराशि से बार-भाव भर<br>बारशिशिर ज्यों पत्र पर कनकचक्राकार कलरव-प्रभात तरंगों केमध्य मेंउठी हुई उर्वशी-सी, <br>किरणकम्पित प्रतनु-सम्पात से।<br><br>भार,विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टिनिश्चल अरूप में।
हुआ रूप-दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों<br>विचरते मञ्जु-मुख <br>जब कृतविद्य तुम मिलेगुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज<br>विद्या को दृगों से,मुखर उर मौन वा स्तुतिमिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,-गीत में हरे।<br>प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिकशेफालिका को शुभ हीरक-<br>भरते अन्तर पुलकराशि से बारसुमन-बार<br>चक्राकार कलरवहार,-तरंगों के मध्य में<br>उठी हुई उर्वशी-सी, <br>श्रृंगारकम्पित प्रतनुशुचिदृष्टि मूक रस-भार, <br>विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि<br>निश्चल अरूप में।<br><br>सृष्टि को।
हुआ रूपयाद है, उषःकाल,-दर्शन<br>जब कृतविद्य तुम मिले<br>विद्या को प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों सेमें, <br>मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त कीमञ्जरित लता परप्रथम विहग-<br>बालिकाओं का मुखर स्वरशेफालिका को शुभ हीरकप्रणय-सुमनमिलन-हारगान,-<br>श्रृंगार<br>शुचिदृष्टि मूक रसप्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-सृष्टि को।<br><br>तनुप्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;
याद है, उषःकालकरती विहारउपवन में मैं,छिन्न-<br>हारप्रथममुक्ता-किरण-कम्प प्राची के दृगों मेंसी निःसंग, <br>प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की<br>मञ्जरित लता परबहु रूप-रंग वे देखती,<br>सोचती;प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर<br>मिले तुम एकाएक;प्रणयदेख मैं रुक गयी:-मिलन-गानचल पद हुए अचल,<br>प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु<br>आप ही अपल दृष्टि,प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;<br><br>फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।
करती विहार<br>उपवन में मैंदिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को, छिन्न-हार<br>मुक्ता-सी निःसंग,<br>इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये!बहु रूप-रंग वे देखतीदूर थी, सोचती;<br>मिले तुम एकाएक;<br>देख खिंचकर समीप ज्यों मैं रुक गयी:-<br>हुईचल पद हुए अचल, <br>आप अपनी ही अपल दृष्टिमें;जो था समीप विश्व, <br>फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।<br><br>दूर दूरतर दिखा।
दिये नहीं प्राण जो इच्छा मिली ज्योति छबि से दूसरे को, <br>तुम्हारीइच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये !<br>ज्योति-छबि मेरी;दूर थी, <br>खिंचकर समीप नीलिमा ज्यों शून्य से;बँधकर मैं हुई।<br>रह गई;अपनी ही दृष्टि डूब गये प्राणों में;<br>जो था समीप पल्लव-लता-भारवन-पुष्प-तरु-हारकूजन-मधुर चल विश्वके दृश्य सब, <br>-दूर दूरतर दिखा।<br><br>सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल-सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा,सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी!
मिली ज्योति छबि से तुम्हारी<br>बँधी हुई तुमसे हीज्योतिदेखने लगी मैं फिर-छबि मेरी, <br>नीलिमा ज्यों शून्य सेफिर प्रथम पृथ्वी को;<br>बँधकर मैं रह गयी;<br>डूब गये प्राणों में <br>पल्लवभाव बदला हुआ-लता-भार<br>वनपहले ही घन-पुष्प-तरु-हार<br>कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,-<br>सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल-<br>सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा, <br>सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।<br>घटा वर्षण बनी हुई;प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया!<br><br>
बँधी देखती हुई तुमसे ही<br>सहजदेखने लगी हो गयी मैं फिर-<br>जड़ीभूत,जगा देहज्ञान,फिर प्रथम पृथ्वी कोयाद गेह की हुई;<br>भाव बदला हुआ-<br>लज्जितपहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई;<br>उठे चरण दूसरी ओर कोकैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया विमुख अपने से हुई!<br><br>
देखती हुई सहज<br>हो गयी मैं जड़ीभूतचली चुपचाप, <br>जगा देहज्ञानमूक सन्ताप हृदय में, <br>फिर याद गेह की हुई;<br>पृथुल प्रणय-भार।लज्जित<br>देखते निमेषहीन नयनों से तुम मुझेउठे चरण दूसरी ओर रखने को<br>चिरकाल बाँधकर दृष्टि सेविमुख अपने अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय,पीने को अमृत अंगों से हुई झरता हुआ।कैसी निरलस दृष्टि!<br><br>
चली चुपचाप, <br>मूक सन्ताप हृदय सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में, <br>पृथुल प्रणयदेखता है एकटक किरण-भार।<br>कुमारी को।–देखते निमेशहीन नयनों से तुम मुझे<br>पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व, उपहार देतारखने नभ की निरुपमा को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से<br>,अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिएपलकों पर रख नयनकरता प्रणयन,<br>शब्द-मर्त्य भावों में स्वर्गसुख पाने विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत परकुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;जीते संस्कार वे बद्ध संसार के अर्थ-उनकी ही मैं हुई!समझ नहीं सकी, प्रियहाय, <br>पीने को अमृत अंगों बँधा सत्य अञ्चल से झरता हुआ।<br>कैसी निरलस दृष्टि !<br><br>खुलकर कहाँ गिरा।
सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में<br>बीता कुछ काल,देखता है एकटक किरणदेह-कुमारी को।–<br>पृथ्वी का प्यारज्वाला बढ़ने लगी, सर्वस्व उपहार देता<br>नभ नन्दन निकुञ्ज की निरुपमा रति कोज्यों मिला मरु, <br>पलकों उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर रख नयन<br>करता प्रणयनपंकिल हुई, शब्दसलिल-<br>देह कलुषित हुआ।भावों में विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।<br>करुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली,देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर <br>किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहे-कुल मानभर नहीं सके प्राण रूप-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;<br>विन्दु-दान से।जीते संस्कार वे बद्ध संसार केतब तुम लघुपद-<br>विहारउनकी ही मैं हुई !<br>अनिल ज्यों बार-बार
समझ नहीं सकीवक्ष के सजे तार झंकृत करने लगेसाँसों से, हायभावों से, <br>बँधा सत्य अञ्चल चिन्ता से<br>कर प्रवेश।खुलकर कहाँ गिरा।<br>अपने उस गीत परबीता कुछ कालसुखद मनोहर उस तान का माया में, <br>देह-ज्वाला बढ़ने लगी, <br>नन्दन निकुञ्ज लहरों में हृदय की रति को ज्यों मिला मरु, <br>उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर<br>पंकिल हुई, सलिलभूल-देह कलुषित हुआ।<br>सी मैं गयीकरुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली, <br>किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहेसंसृति के दुःख-<br>घात;भर नहीं सके प्राण रूपश्लथ-विन्दु-दान से।<br>तब गात, तुम लघुपद-विहार<br>में ज्योंअनिल ज्यों बार-बार<br><br>रही मैं बद्ध हो।
वक्ष किन्तु हाय,रूढ़ि, धर्म के सजे तार झंकृत करने लगे<br>विचार,साँसों सेकुल, भावों सेमान, शील, ज्ञान, चिन्ता से कर प्रवेश।<br>अपने उस गीत पर<br>उच्च प्राचीर ज्यों घेरे जो थे मुझे,सुखद मनोहर उस तान का माया मेंघेर लेते बार-बार, <br>लहरों जब मैं संसार में हृदय की<br>रखती थी पदमात्र,भूलछोड़ कल्प-सी मैं गयी<br>निस्सीम पवन-विहार मुक्त।संसृति के दुःखदोनों हम भिन्न-घातवर्ण, <br>श्लथभिन्न-गातजाति, भिन्न-रूप, तुममें ज्यों<br>रही मैं बद्ध हो।<br><br>भिन्न-धर्मभाव, परकेवल अपनाव से, प्राणों से एक थे।किन्तु दिन रात का,जल और पृथ्वी काभिन्न सौन्दर्य से बन्धन स्वर्गीय हैसमझे यह नहीं लोगव्यर्थ अभिमान के !
किन्तु हाय, <br>अन्धकार था हृदयरूढ़िअपने ही भार से झुका हुआ, धर्म के विचार, <br>विपर्यस्त।कुल, मान, शील, ज्ञान, <br>गृह-जन थे कर्म पर।उच्च प्राचीर मधुर प्रात ज्यों घेरे जो थे मुझेद्वार पर आये तुम, <br>घेर लेते बारनीड़-बार, <br>सुख छोड़कर मुक्त उड़ने को संगजब किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।आयी मैं संसार में रखती थी पदमात्रद्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर, <br>छोड़ कल्प-निस्सीम पवन-विहार मुक्त।<br>अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भरदोनों हम भिन्न-वर्णजीवन की वीणा में,<br>भिन्न-जाति, भिन्न-रूप,<br> सुनती थी मैं जिसे।भिन्न-धर्मभावपहचाना मैंने, पर<br>हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।केवल अपनाव सेचल दी मैं मुक्त, प्राणों से एक थे।<br><br>साथ।
किन्तु दिन रात का, <br>जल और पृथ्वी का<br>भिन्न सौन्दर्य से बन्धन स्वर्गीय है<br>समझे यह नहीं लोग <br>व्यर्थ अभिमान के !<br>अन्धकार था हृदय <br>अपने ही भार से झुका हुआ, विपर्यस्त।<br>गृह-जन थे कर्म पर।<br>मधुर प्रात ज्यों द्वार पर आये तुम, <br>नीड़-सुख छोड़कर मुझे मुक्त उड़ने को संग<br>किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।<br><br> आयी मैं द्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर, <br>अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भर<br>जीवन की वीणा में, <br>सुनती थी मैं जिसे।<br>पहचाना मैंने, हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।<br>चल दी मैं मुक्त, साथ।<br>एक बार की ऋणी <br>उद्धार के लिए, <br>शत बार शोध की उर में प्रतिज्ञा की।<br><br> पूर्ण मैं कर चुकी।<br>गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं।<br>रूप के द्वार पर<br>मोह की माधुरी<br>कितने ही बार पी मूर्च्छित हुए हो, प्रिय, <br>जागती मैं रही, <br>गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।<br/poem>
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