"प्रलाप / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर
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ढीले हो जायें ये सारे बन्धन, | ढीले हो जायें ये सारे बन्धन, | ||
होये सहज चेतना लुप्त,-- | होये सहज चेतना लुप्त,-- | ||
− | भूल जाऊँ अपने को, कर के मुझे | + | भूल जाऊँ अपने को, कर के मुझे अचेतन। |
+ | भूलूँ मैं कविता के छन्द, | ||
+ | अगर कहीं से आये सुर-संगीत-- | ||
+ | अगर बजाये तू ही बैठ बगल में कोई तार | ||
+ | तो कानों तक आते ही रुक जाये उनकी झंकार; | ||
+ | भूलूँ मैं अपने मन को भी | ||
+ | तुझको-अपने प्रियजन को भी! | ||
+ | हँसती हुई, दशा पर मेरी प्रिय अपना मुख मोड़, | ||
+ | जायेगी ज्यों-का-त्यों मुझको यहाँ अकेला छोड़! | ||
+ | इतना तो कह दे--सुख या दुख भर लेगी | ||
+ | जब इस नद से कभी नई नय्या अपनी खेयेगी? | ||
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20:13, 8 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
वीणानिन्दित वाणी बोल!
संशय-अन्धकामय पथ पर भूला प्रियतम तेरा--
सुधाकर-विमल धवल मुख खोल!
प्रिये, आकाश प्रकाशित करके,
शुष्ककण्ठ कण्टकमय पथ पर
छिड़क ज्योत्स्ना घट अपना भर भरके!
शुष्क हूँ--नीरस हूँ--उच्छ्श्रृखल--
और क्या क्या हूँ, क्या मैं दूँ अब इसका पता,
बता तो सही किन्तु वह कौन घेरनेवाली
बाहु-बल्लियों से मुझको है एक कल्पना-लता!
अगर वह तू है तो आ चली
विहगगण के इस कल कूजन में--
लता-कुंज में मधुप-पुंज के ’गुनगुनगुन’ गुंजन में;
क्या सुख है यह कौन कहे सखि,
निर्जन में इस नीरव मुख-चुम्बन में!
अगर बतायेगी तू पागल मुझको
तो उन्मादिनी कहूँगा मैं भी तुझको
अगर कहेगी तू मुझको ’यह है मतवाला निरा’
तो तुझे बताऊँगा मैं भी लावण्य-माधुरी-मदिरा।
अगर कभी देगी तू मुझको कविता का उपहार
तो मैं भी तुझे सुनाऊँगा भैरव दे पद दो चार!
शान्ति-सरल मन की तू कोमल कान्ति--
यहाँ अब आ जा,
प्याला-रस कोई हो भर कर
अपने ही हाथों से तू मुझे पिला जा,
नस-नस में आनन्द-सिन्धु के धारा प्रिये, बहा जा;
ढीले हो जायें ये सारे बन्धन,
होये सहज चेतना लुप्त,--
भूल जाऊँ अपने को, कर के मुझे अचेतन।
भूलूँ मैं कविता के छन्द,
अगर कहीं से आये सुर-संगीत--
अगर बजाये तू ही बैठ बगल में कोई तार
तो कानों तक आते ही रुक जाये उनकी झंकार;
भूलूँ मैं अपने मन को भी
तुझको-अपने प्रियजन को भी!
हँसती हुई, दशा पर मेरी प्रिय अपना मुख मोड़,
जायेगी ज्यों-का-त्यों मुझको यहाँ अकेला छोड़!
इतना तो कह दे--सुख या दुख भर लेगी
जब इस नद से कभी नई नय्या अपनी खेयेगी?