भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"तोड़ती पत्‍थर / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार= सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
 
|रचनाकार= सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 
वह तोड़ती पत्‍थर;
 
वह तोड़ती पत्‍थर;
 
 
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
 
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
 
 
वह तोड़ती पत्‍थर।
 
वह तोड़ती पत्‍थर।
 
  
 
कोई न छायादार
 
कोई न छायादार
 
 
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्‍वीकार;
 
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्‍वीकार;
 
 
श्‍याम तन, भर बँधा यौवन,
 
श्‍याम तन, भर बँधा यौवन,
 
 
नत नयन प्रिय,कर्म-रत मन,
 
नत नयन प्रिय,कर्म-रत मन,
 
 
गुरू हथौड़ा हाथ,
 
गुरू हथौड़ा हाथ,
 
 
करती बार-बार प्रहार:
 
करती बार-बार प्रहार:
 
 
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
 
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
 
  
 
चढ़ रही थी धूप;
 
चढ़ रही थी धूप;
 
 
गर्मियों के दिन
 
गर्मियों के दिन
 
 
दिवा का तमतमाता रुप;
 
दिवा का तमतमाता रुप;
 
 
उठी झुलसाती हुई लू,
 
उठी झुलसाती हुई लू,
 
 
रूई ज्‍यों जलती हुई भू,
 
रूई ज्‍यों जलती हुई भू,
 
 
गर्द चिनगी छा गई,
 
गर्द चिनगी छा गई,
 
 
प्राय: हुई दुपहर:
 
प्राय: हुई दुपहर:
 
 
वह तोड़ती पत्‍थर।
 
वह तोड़ती पत्‍थर।
 
  
 
देखते देखा मुझे तो एक बार
 
देखते देखा मुझे तो एक बार
 
 
उस भवन की ओर देखा, छिन्‍नतार;
 
उस भवन की ओर देखा, छिन्‍नतार;
 
 
देखकर कोई नहीं,
 
देखकर कोई नहीं,
 
 
देखा मुझे उस दृष्टि से
 
देखा मुझे उस दृष्टि से
 
 
जो मार खा रोई नहीं,
 
जो मार खा रोई नहीं,
 
 
सजा सहज सितार,
 
सजा सहज सितार,
 
 
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
 
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
 
 
एक क्षण के बाद वह कॉंपी सुघर,
 
एक क्षण के बाद वह कॉंपी सुघर,
 
 
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
 
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
 
 
लीन होते कर्म में फिर ज्‍यों कहा-
 
लीन होते कर्म में फिर ज्‍यों कहा-
 
 
'मैं तोड़ती पत्‍थर।'
 
'मैं तोड़ती पत्‍थर।'
 +
</poem>

23:03, 8 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

वह तोड़ती पत्‍थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्‍थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्‍वीकार;
श्‍याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय,कर्म-रत मन,
गुरू हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रुप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्‍यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगी छा गई,
प्राय: हुई दुपहर:
वह तोड़ती पत्‍थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्‍नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह कॉंपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्‍यों कहा-
'मैं तोड़ती पत्‍थर।'